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रंगभूमि


ज्यों ही ताँगा द्वार पर आया, विनय आकर बैठ गये, लेकिन नायकराम अपनी अधघुटी बूटी क्योंकर छोड़ते। जल्दी-जल्दी रगड़ी, छानकर पी, तमाखू खाई, आईना के सामने खड़े होकर पगड़ी बाँधी, आदमियों को राम-राम कहा और दुशाले को सचेष्ट नेत्रों से ताकते हुए बाहर निकले। ताँगा चला। सरदार साहब का घर रास्ते ही में था। वहाँ जाकर नायकराम ने कुंजी उनके द्वारपाल के हवाले की और आठ बजते-बजते स्टेशन पर पहुँच गये। नायकराम ने सोचा, राह में तो कुछ खाने को मिलेगा नहीं, और गाड़ी पर भोजन करेंगे कैसे, दौड़कर पूरियाँ लीं, पानी लाये और खाने बैठ गये। विनय ने कहा, मुझे अभी इच्छा नहीं हैं। वह खड़े गाड़ियों की समय-सूची देख रहे थे कि यह गाड़ी अजमेर कब पहुँचेगी, दिल्ली में कौन-सी गाड़ी मिलेगी। सहसा क्या देखते हैं कि एक बुढ़िया आर्तनाद करती हुई चली आ रही है। दो-तीन आदमी उसे सँभाले हुए हैं। वह विनयसिंह के समीप ही आकर बैठ गई। विनय ने पूछा, तो मालूम हुआ कि इसका पुत्र जसवंतनगर की जेल का दारोगा था, उसे दिन दहाड़े किसी ने मार डाला। अभी समाचार आया है, और यह बेचारी शोकातुरा माता यहाँ से जसवंतनगर जा रही है। मोटरवाले किराया बहुत माँगते थे, इसलिए रेलगाड़ी से जाती है। रास्ते में उतरकर बैलगाड़ी कर लेगी। एक ही पुत्र था; बेचारी को बेटे का मुंह देखना भी न बदा था।

विनयसिंह को बड़ा दुःख हुआ-"दारोगा बड़ा सीधा-सादा आदमी था। कैदियों पर बड़ी दया किया करता था। उससे किसी को क्या दुश्मनी हो सकती थी। उन्हें तुरंत संदेह हुआ कि यह भी वीरपालसिंह के अनुयायियों की क्रूर लीला है। सोफो ने कोरी धमकी न दी थी। मालूम होता है, उसने गुप्त हत्याओं के साधन एकत्र कर लिये हैं। भगवान्, मेरे दुष्कृत्यों का क्षेत्र कितना विस्तृत है? इन हत्याओं का अपराध मेरी गर्दन पर है, सोफी की गर्दन पर नहीं। सोफिया-जैसी करुणामयी, विवेकशीला, धर्म- निष्ठा रमणी मेरी ही दुर्बलता से प्रेरित होकर हत्या मार्ग पर अग्रसर हुई है। ईश्वर! क्या अभी मेरी यातनाओं की मात्रा पूरी नहीं हुई? मैं फिर सोफिया के पास जाँऊँगा, अवश्य जाऊँगा, और उसके चरणों पर सिर रखकर विनीत भाव से कहूँगा-देवी। मैं अपने किये का दंड पा चुका, अब यह लीला समाप्त कर दो, अन्यथा यहीं तुम्हारे सामने प्राण त्याग दूंगा! लेकिन सोफ़ी को पाऊँ कहाँ? कौन मुझे उस दुर्गम दुर्ग तक ले जायगा?"

जब गाड़ी आई, तो विनय ने वृद्धा को अपनी ही गाड़ी में बैठाया। नायकराम दूसरी गाड़ी में बैठे, क्योंकि विनय के सामने उन्हें मुसाफिरों से चुहल करने का मौका न मिलता। गाड़ी चली। आज पुलिस के सिपाही प्रत्येक स्टेशन पर टहलते हुए नजर आते थे। दरबार ने मुसाफिरों की रक्षा के लिए यह विशेष प्रबंध किया था। किसी स्टेशन पर मुसाफिर सवार होते न नजर आते थे। विद्रोहियों ने कई जागीरदारों को लूट लिया था।

पाँचवें स्टेशन से थोड़ी ही दूर पर एकाएक गाड़ी रुक गई। वहाँ कोई स्टेशन न था। लाइन के नीचे कई आदमियों की बातचीत सुनाई दी। फिर किसी ने विनय के