पण्डित-"कह दिया, मैं नहीं जानता।"
विनय-"मि० क्लार्क तो दौरे पर होंगे?"
पण्डित-"मैं कुछ नहीं जानता।"
नायकराम-"पूजा-पाठ में देस-दुनिया की सुध ही नहीं!"
पण्डित-"हाँ, जब तक मनोकामना न पूरी हो जाय, तब तक मुझे किसी से कुछ सरोकार नहीं। सवेरे-सवेरे तुमने म्लेच्छों का नाम सुना दिया, न जाने दिन कैसे कटेगा।"
नायकराम-“वह कौन-सी मनोकामना है?"
पण्डित-"अपने अपमान का बदला।"
नायकराम—"किससे?"
पण्डित—"उसका नाम न लूंगा। किसी बड़े रईस का लड़का है। काशी से दोनों की सहायता करने आया था। सैकड़ों घर उजाड़कर न जाने कहाँ चल दिया। उसी के निमित्त यह अनुष्ठान कर रहा हूँ। यहाँ आधा नगर मेरा यजमान था, सेठ-साहूकार मेरा आदर करते थे। विद्यार्थियों को पढ़ाया करता था। बुराई यह थी कि नाजिम को सलाम करने न जाता था। अमलों की कोई बुराई देखता, तो मुँह पर खोलकर कह देता। इसी से सब कर्मचारी मुझसे जलते थे। पिछले दिनों जब यहाँ दंगा हुआ, तो सबों ने उसी बनारस के गुंडे से मुझ पर राजद्रोह का अपराध लगवा दिया। सजा हो गई, बेंत पड़ गये, जरीबाना हो गया, मर्यादा मिट्टी में मिल गई। अब नगर में कोई द्वार पर खड़ा नहीं होने देता। निराश होकर देवी की शरण आया हूँ। पुरश्चरण का पाठ कर रहा हूँ। जिस दिन सुनूंगा क उस हत्यारे पर देवी ने कोप किया, उसी दिन मेरी तपस्या पूरी हो जायगी। द्विज हूँ, लड़ना-भिड़ना नहीं जानता, मेरे पास इसके सिवा और कौन-सा हथियार है?"
विनय किसी शराबखाने से निकलते हुए पकड़े जाते, तो भी इतने शर्मिदा न होते। उन्हें अब इस ब्राह्मण की सूरत याद आई, याद आया कि मैंने ही पुलिस की प्रेरणा से इसे पकड़ा दिया था। जेब से पाँच रुपये निकाले और पण्डितजी से बोले-“यह लीजिए; मेरी ओर से भी उस नर-पिशाच के प्रति मारण-मंत्र का जाप कर दीजिएगा। उसने मेरा भी सर्वनाश किया है। मैं भी उसके खून का प्यासा हो रहा हूँ।"
पण्डित-"महाराज, आपका भला होगा। शत्रु की देह में कीड़े न पड़ जायँ, तो कहिएगा कि कोई कहता था। कुत्तों की मौत मरेगा। यहाँ सारा नगर उसका दुश्मन है। अब तक इसलिए उसकी जान बची कि पुलिस उसे घेरे रहती थी। मगर कब तक? जिस दिन अकेला घर से निकला, उसी दिन देवी का उस पर कोप गिरा। है वह इसी राज्य में, कहीं बाहर नहीं गया है, और न अब बचकर जा ही सकता है। काल उसके सिर पर खेल रहा है। इतने दीनों की हाय क्या निष्फल हो जायगी?"