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रंगभूमि


प्रभु सेवक-"मुझे ऐसे बँगले से झोपड़ा ही पसंद है, जिसके लिए कई गरीबों के घर गिराने पड़ें। मैं कुँवर साहब से इस विषय में कुछ न कहूंगा। आप खुद कहिएगा।"


जॉन सेवक-"यह तुम्हारी अकर्मण्यता है। इसे संतोष और दया कहकर तुम्हें धोखे में न डालूंगा। तुम जीवन की सुख-सामग्रियाँ तो चाहते हो, लेकिन उन सामग्रियों के लिए जिन साधनों की जरूरत है, उनसे दूर भागते हो। हमने तुम्हें नियात्मक रूप से कभी धन और विभव से घृणा करते नहीं देखा। तुम अच्छे-से-अच्छा मकान, अच्छे-से-अच्छा भोजन, अच्छे-से-अच्छा वस्त्र चाहते हो, लेकिन बिना हाथ-पैर हिलाये ही चाहते हो कि कोई तुम्हारे मुँह में शहद और शर्बत टपका दे।"


प्रभु सेवक-"रस्म-रिवाज से विवश होकर मनुष्य को बहुधा अपनी आत्मा के विरुद्ध आचरण करना पड़ता है।"


जॉन सेवक-"जब सुख-भोग के लिए तुम रस्म-रिवाज से विवश हो जाते हो, तो सुख-भोग के साधनों के लिए क्यों उन्हीं प्रथाओं से विवश नहीं होते? तुम मन और वचन से वर्तमान सामाजिक प्रणाली की कितनी ही उपेक्षा क्यों न करो, मुझे जरा भी आपत्ति न होगी। तुम इस विषय पर व्याख्यान दो, कविताएँ लिखो, निबंध रचो, मैं खुश होकर उन्हें पद गा और तुम्हारी प्रशंसा करूँगा; लेकिन कर्मक्षेत्र में आकर उन भावों को उसी भाँति भूल जाओ, जैसे अच्छे-से-अच्छा सूट पहनकर मोटर पर सैर करते समय तुम त्याग, संतोष और आत्मनिग्रह को भूल जाते हो।"


प्रभु सेवक और कितने ही विलास-भोगियों की भाँति सिद्धांत-रूप से जनवाद के कायल थे। जिन परिस्थितियों में उनका लालन-पालन हुआ था, जिन संस्कारों से उनका मानसिक और आत्मिक विकास हुआ था, उनसे मुक्त हो जाने के लिए जिस नैतिक साहस की, उद्यंडता की जरूरत है, उससे वह रहित थे। वह विचार-क्षेत्र में त्याग के भावों को स्थान देकर प्रसन्न होते थे और उन पर गर्व करते थे। उन्हें शायद कभी सूझा ही न था कि इन भावों को व्यवहार-रूप में भी लाया जा सकता है। वह इतने संयमशील न थे कि अपनी विलासिता को उन भावों पर बलिदान कर देते। साम्यवाद उनके लिए मनोरंजन का एक विषय था, और बस। आज तक कभी किसी ने उनके आचरण की आलोचना न की थी, किसी ने उनको व्यंग्य का निशाना न बनाया था, और मित्रों पर अपने विचार-स्वातंत्र्य की धाक जमाने के लिए उनके विचार काफो थे। कुँवर भरतसिंह के संयम और विराग का उन पर इसलिए असर न होता था कि वह उन्हें उच्चतर श्रेणी का मनुष्य समझते थे। अशर्फियों की थैली मखमल की हो या खद्दर की, अधिक अंतर नहीं। पिता के मुख से यह व्यंग्य सुनकर ऐसे तिलमिला उठे, मानों चाबुक पड़ गया हो। आग चाहे फूस को न जला सके, लोहे की कील मिट्टी में चाहे न समा सके, काँच चाहे पत्थर की चोट से न टूट सके, व्यंग्य विरले ही कभी हृदय को प्रज्वलित करने, उसमें चुभने और उसे चोट पहुँचाने में असफल होता है, विशेष करके