सूरदास—"तो मैं रुपये लेने न जाऊँगा। साहब ने पाँच हजार देने कहे थे, उनके एक हजार रहे, घूस-पास में सौ-पचास और उड़ जायँगे। सरकार का खजाना खाली है, भर जायेगा।"
प्रभु सेवक—"रुपये न लोगे, तो जब्त हो जायँगे। यहाँ तो सरकार इसी ताक में रहती है कि किसी तरह प्रजा का धन उड़ा ले। कुछ टैक्स के बहाने से, कुछ रोजगार के बहाने से, कुछ किसी बहाने से हजम कर लेती है।"
सूरदास—"गरीबों की चीज लेती है, तो बाजार-भाव से दाम न देना चाहिए? एक तो जबरजस्ती जमीन ले ली, उस पर मनमाना दाम दे दिया। यह तो कोई न्याय नहीं है।"
प्रभु सेवक—"सरकार यहाँ न्याय करने नहीं आई है भाई, राज्य करने आई है। न्याय करने से उसे कुछ मिलता है? कोई समय वह था, जब न्याय को राज्य की बुनियाद समझा जाता था। अब वह जमाना नहीं है। अब व्यापार का राज्य है, और जो इस राज्य को स्वीकार न करे, उसके लिए तारों का निशाना मारनेवाली तोपें हैं। तुम क्या कर सकते हो? दीवानी में मुकदमा दायर करोगे, वहाँ भी सरकार हो के नौकर-चाकर न्याय-पद पर बैठे हुए हैं।"
सूरदास—"मैं कुछ न लूँगा। जब राजा ही अधर्म करने लगा, तो परजा कहाँ तक जान बचाती फिरेगी?"
प्रभु सेवक—"इससे फायदा क्या? एक हजार मिलते हैं, ले लो; भागते भूत की लँगोटी ही भली।"
सहसा इंद्रदत्त आ पहुँचे और बोले—"प्रभु, आज डेरा कूच है, राजपूताना जा रहा हूँ।
प्रभु सेवक—"व्यर्थ जाते हो। एक तो ऐसी सख्त गरमी, दूसरे वहाँ की दशा अब बड़ी भयानक हो रही है। नाहक कहीं फँस-फँसा जाओगे।"
इंद्रदत्त—"बस, एक बार विनयसिंह से मिलना चाहता हूँ। मैं देखना चाहता हूँ कि उनके स्वभाव, चरित्र, आचार-विचार में इतना परिवर्तन, नहीं रूपांतर, कैसे हो गया।"
प्रभु सेवक—"जरूर कोई-न-कोई रहस्य है। प्रलोभन में पड़नेवाला आदमी तो नहीं है। मैं तो उनका परम भक्त हूँ। अगर वह विचलित हुए, तो मैं समझ जाऊँगा कि धर्मनिष्ठा का संसार से लोप हो गया।"
इंद्रदत्त—"यह न कहो प्रभु, मानव-चरित्र बहुत ही दुर्बोध वस्तु है। मुझे तो विनय की काया-पलट पर इतना क्रोध आता है कि पाऊँ, तो गोली मार दूं। हाँ, संतोष इतना ही है कि उनके निकल जाने का इस संथ्था पर कोई असर नहीं पड़ सकता। तुम्हें तो मालूम है, हम लोगों ने बंगाल में प्राणियों के उद्धार के लिए कितना भगीरथ प्रयत्न किया। कई-कई दिन तक तो हम लोगों को दाना तक न मयस्सर होता था।"
सूरदास—"भैया, कौन लोग. इस भाँति गरीबों का पालन करते हैं?"