जमाना आप इसी वक्त मुझसे ले लें और उन दोनों को रिहा करने का हुक्म दे दें। कचहरी अभी देर में खुलेगी। मैं इसे आपकी विशेष कृपा समझूँगा।"
महेंद्रकुमार—"हाँ, नियम-विरुद्ध तो है, लेकिन तुम्हारा लिहाज करना पड़ता है। रुपये मुनीम को दे दो, मैं रिहाई का हुक्म लिखे देता हूँ। कितने रुपये जमा किये?"
इंद्रदत्त—"बस, शाम को चुने हुए सजनों के पास गया था। कोई पाँच सौ रुपये हो गये।"
महेंद्रकुमार—"तब तो तुम इस कला में निपुण हो। इदुरानी का नाम देखकर न देनेवालों ने भी दिये होंगे।"
इंद्रदत्त—"मैं इदुरानी के नाम का इससे ज्यादा आदर करता हूँ। अगर उनका नाम दिखाता, तो पाँच सौ रुपये न लाता, पाँच हजार लाता।"
महेंद्रकुमार—"अगर यह सच है, तो तुमने मेरी आबरू रख ली।"
इंद्रदत्त—"मुझे आपसे एक याचना और करनी है। कुछ लोग सूरदास को इजत के साथ उसके घर पहुँचाना चाहते हैं। संभव है, दो-चार सौ दर्शक जमा हो जायँ। मैं आपसे इसकी आज्ञा चाहता हूँ।"
महेंद्रकुमार—"जुलूस निकालने की आज्ञा नहीं दे सकता। शांति-भंग हो जाने की शंका है।"
इंद्रदत्त—"मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि पत्ता तक न हिलेगा।"
महेंद्रकुमार—"यह असंभव है।"
इंद्रदत्त—"मैं इसकी जमानत दे सकता हूँ।"
महेंद्रकुमार—"यह नहीं हो सकता।"
इंद्रदत्त समझ गया कि राजा साहब से अब ज्यादा आग्रह करना व्यर्थ है। जाकर मुनीम को रुपये दिये और ताँगे की ओर चला। सहसा राजा साहब ने पूछा-"जुलूस तो न निकलेगा न?"
इंद्रदत्त—"निकलेगा। मैं रोकना चाहूँ, तो भी नहीं रोक सकता।"
इंद्रदत्त वहाँ से अपने मित्रों को सूचना देने के लिए चले। जुलूस का प्रबंध करने में घंटों की देर लग गई। इधर उनके जाते ही राजा साहब ने जेल के दारोगा को टेलीफोन कर दिया कि सूरदास और सुभागी छोड़ दिये जाय और उन्हें बन्द गाड़ी में बैठा कर उनके घर पहुँचा दिया जाय। जब इंद्रदत्त सवारी, बाजे आदि लिये हुए जेल पहुँचे, तो मालूम हुआ, पिंजरा खाली है, चिड़ियाँ उड़ गई। हाथ मलकर रह गये। उन्हीं पाँवों पाँड़ेपुर चले। देखा, तो सूरदास एक नीम के नीचे राख के ढेर के पास बैठा हुआ है। एक ओर सुभागी सिर झुकाये खड़ी है। इंद्रदत्त को देखते ही जगधर और अन्य कई आदमी इधर-उधर से आकर जमा हो गये।
इंद्रदत्त—"सूरदास, तुमने तो बड़ी जल्दी की। वहाँ लोग तुम्हारा जुलूस निकालने