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रंगभूमि

प्रभु सेवक-"नहीं भई, मैं इस काम का नहीं हूँ। मुझे माँगना नहीं आता! कोई देता भी होगा, तो मेरी सूरत देखकर मुट्ठी बंद कर लेगा।"

इंद्रदत्त-(इंदु से) "आज तो यहाँ खूब तमाशा हुआ।”

इंदु-'मुझे तो ड्रामा का-सा आनंद मिला। सूरदास के विषय में तुम्हारा क्या खयाल है?"

इंद्रदत्त-"मुझे तो वह निष्कपट, सच्चा, सरल मनुष्य मालूम होता है।"

इंदु-"बस-बस, यही मेरा भी विचार है। मैं समझती हूँ, उसके साथ अन्याय हुआ। फैसला सुनाते वक्त तक मैं उसे अपराधी समझती थी, पर उसकी अपील ने मेरे विचार में कायापलट कर दी। मैं अब तक उसे मक्कार, धूर्त, रँगा हुआ सियार समझती थी। उन दिनों उसने हम लोगों को कितना बदनाम किया! तभी से मुझे उससे घणा हो गई थी। मैं उसे मजा चखाना चाहती थी। लेकिन आज ज्ञात हुआ कि मैंने उसके चरित्र के समझने में भूल की। वह अपनी धुन का पक्का, निर्भीक, निःस्पृह, सत्यनिष्ठ आदमी है, किसी से दबना नहीं जानता।"

इंद्रदत्त-"तो इस सहानुभूति को क्रिया के रूप में भी लाइएगा? हम लोग आपस में चंदा करके जुर्माना अदा कर देना चाहते हैं। आप भी इस सत्कार्य में योग देंगी?"

इंदु ने मुस्किराकर कहा-"मैं मौखिक सहानुभूति ही काफी समझती हूँ।"

इंद्रदत्त-"आप ऐसा कहेंगी, तो मेरा यह विचार पुष्ट हो जायगा कि हमारे रईसों में नैतिक बल नहीं रहा। हमारे राव-रईस हरएक उचित और अनुचित कार्य में अधिकारियों की सहायता करते रहते हैं, इसीलिए जनता का उन पर से विश्वास उठ गया है। वह उन्हें अपना मित्र नहीं, शत्रु समझतो है। मैं नहीं चाहता कि आपकी गणना भी उन्हीं रईसों में हो। कम-से-कम मैंने आपको अब तक उन रईसों से अलग समझा है।"

इंदु ने गंभीर भाव से कहा-"इंद्रदत्त, में ऐसा क्यों कर रही हूँ, इसका कारण तुम जानते हो। राजा साहब सुनेंगे, तो उन्हें कितना दुःख होगा! मैं उनसे छिपकर कोई काम नहीं करना चाहती।"

इंद्रदत्त-"राजा साहब से इस विषय में अभी मुझसे बातचीत नहीं हुई। लेकिन मुझे विश्वास है कि उनके भाव भी हमीं लोगों-जैसे होंगे। उन्होंने इस वक्त कानूनी फैसला किया है। सच्चा फैसला उनके हृदय ने किया होगा। कदाचित् उनकी तरह न्यायपद पर बैठकर मैं भी वही फैसला करता, जो उन्होंने किया है। लेकिन वह मेरे ईमान का फैसला नहीं, केवल कानून का विधान होता। मेरी उनसे घनिष्ठता नहीं है, नहीं तो उनसे भी कुछ-न-कुछ ले मरता। उनके लिए भागने का कोई रास्ता नहीं था।"

इंदु—"संभव है, राजा साहब के विषय में तुम्हारा अनुमान सत्य हो। मैं आज उनसे पूछूँगी।"

इंद्रदत्त—"पूछिए, लेकिन मुझे भय है कि सजा साहब इतनी आसानी से न खुलेंगे।"