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सूरदास के मुकदमे का फैसला सुनने के बाद इंद्रदत्त चले, तो रास्ते में प्रभु सेवक से मुलाकात हो गई। बातें होने लगी।

इंद्रदत्त-"तुम्हारा क्या विचार है, सूरदास निर्दोष है, या नहीं?"

प्रभु सेवक-"सर्वथा निर्दोष। मैं तो आज उसकी साधुता का कायल हो गया। फैसला सुनाने के वक्त तक मुझे विश्वास था कि अंधे ने जरूर इस औरत को बहकाया है, मगर उसके अंतिम शब्दों ने जादू का-सा असर किया। मैं तो इस विषय पर एक कविता लिखने का विचार कर रहा हूँ।"

इंद्रदत्त-"केवल कविता लिख डालने से काम न चलेगा। राजा साहब की पीठ में धूल लगानी पड़ेगी। उन्हें यह संतोष न होने देना चाहिए कि मैंने अंधे से चक्की पिसवाई। वह समझ रहे होंगे कि अंधा रुपये कहाँ से लायगा! दोनों पर ३००) जुर्माना हुआ है, हमें किसी तरह जुर्माना आज ही अदा करना चाहिए। सूरदास जेल से निकले, तो सारे शहर में उसका जुलूस निकालना चाहिए। इसके लिए २००) की और जरूरत होगी। कुल ५००) हों, तो काम चल जाय। बोलो, क्या देते हो?"

प्रभु सेवक-"जो उचित समझो, लिख लो।"

इंद्रदत्त-"तुम ५०) बिना किसी कष्ट के दे सकते हो?"

प्रभु सेवक-"और तुमने अपने नाम कितना लिखा है?"

इंद्रदत्त-मेरी हैसियत १०) से अधिक देने की नहीं। रानी जाह्नवी से १००) ले लूंगा। कुँवर साहब ज्यादा नहीं, तो १०) दे ही देंगे। जो कुछ कमी रह जायगी, वह दूसरों से माँग ली जायगी। संभव है, डॉक्टर गंगुली सब रुपये खुद ही दे दें, किसी से मांगना ही न पड़े।"

प्रभु सेवक—"सूरदास के मुहल्लेवालों से भी कुछ मिल जायगा।"

इंद्रदत्त—"उसे सारा शहर जानता है, उसके नाम पर दो-चार हजार रुपये मिल सकते हैं; पर इस छोटी-सी रकम के लिए मैं दूसरों को कष्ट नहीं देना चाहता।" यों बातें करते हुए दोनों आगे बढ़े कि सहसा इंदु अपनी फिटन पर आती हुई दिखाई दी। इंद्रदत्त को देखकर रुक गई और बोली-“तुम कब लौटे १ मेरे यहाँ नहीं आये!"

इंद्रदत्त—"आप आकाश पर हैं, मैं पाताल में हूँ, क्या बातें हों?"

इंदु—"आओ, बैठ जाओ, तुमसे बहुत-सी बातें करनी हैं।"

इंद्रदत्त फिटन पर जा बैठा। प्रभु सेवक ने जेव से ५०) का एक नोट निकाला और चुपके से इंद्रदत्त के हाथ में रखकर क्लब को चल दिये।

इंद्रदत्त—"अपने दोस्तों से भी कहना ।"