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रंगभूमि

जगधर-"जब तक एक दफे अच्छी तरह मार न खा जायगा, इसके सिर से भूत न उतरेगा।"

बजरंगी-"हाँ, अब यही होगा। घिसुआ, जरा लाटी तो निकाल ला। आज दो-चार खून हो जायेंगे, तभी आग बुझेगी!”

जमुनी-“तुम्हें क्या पड़ी है, चलकर लेटो। जो जैसा करेगा, उसका फल आप भगवान से पायेगा।"

बजरंगी-"भगवान चाहे फल दें या न दें, पर मैं तो अब नहीं मानता, जैसे देह में आग लगी हुई है।"

जगधर-"आग लगने की बात ही है। ऐसे पानी का तो सिर काट लेना भी पाप नहीं है।"

ठाकुरदीन-"जगधर, आग पर तेल छिड़कना अच्छी बात नहीं। अगर तुमको भैरो से बैर है, तो आप जाकर उसे क्यों नहीं ललकारते, दूसरों को क्यों उकसाते हो? यही चाहते हो कि ये दोनों लड़ मरे और मैं तमासा देखू। हो बड़े नीच!"

जगधर-“अगर कोई बात कहना उकसाना है, तो लो, चुप रहूँगा।"

ठाकुरदीन-"हाँ, चुप रहना ही अच्छा है। तुम भी जाकर सोओ बजरंगी! भगवान आप पापी को दंड देंगे। उन्होंने तो रावन-जैसे प्रतापी को न छोड़ा, यह किस खेत की मूली है! यह अंधेर उनसे भी न देखा जायगा।"

बजरंगी-"मारे घमंड के पागल हो गया है। चलो जगधर, जरा इन सबों से दो-दो बातें कर लें।"

जगधर--"न भैया, मुझे साथ न ले जाओ। कौन जाने, वहाँ मार-पीट हो जाय, तो सारा इलजाम मेरे सिर जाय कि इसी ने लड़ा दिया। मैं तो आप झगड़े से कोसों दूर रहता हूँ।

इतने में मिठुआ दौड़ा हुआ आया। बजरंगी ने पूछा-“कहाँ सोया था रे?"

मिट्ठू-"पण्डाजी की दालान में तो। अरे, यह तो मेरी झोपड़ी जल रही है! किसने आग लगाई?"

ठाकुरदीन—“इतनी देर में जागे हो। सुन नहीं रहे हो, गाना-बजाना हो रहा है

मिट्ठू-"भैरौ ने लगाई है क्या? अच्छा बचा, समझूँगा।"

जब लोग अपने-अपने घर लौट गये, तो मिठुआ धीरे-धीरे भैरो की दूकान की तरफ गया। महफिल उठ चुकी थी। अँधेरा छाया हुआ था। जाड़े की रात, पत्ता तक न खड़कता था। दूकान के द्वार पर उपले जल रहे थे। ताड़ीखानों में आग कभी नहीं बुझती, पारसी पुरोहित भी इतनी सावधानी से आग की रक्षा न करता होगा। मिठुआ ने एक जलता हुआ उपला उठाया और दूकान के छप्पर पर फेक दिया। छप्पर में आग लग गई, तो मिठुआ बगटुट भागा और पण्डाजी की दालान में मुँह ढाँपकर सो