सबसे पहले राजा साहब सँभले। हुक्म दिया, इसे बाहर ले जाओ। सिपाहियों ने दोनों अभियुक्तों को घेर लिया और अदालत के बाहर ले चले। हजारों दर्शक पीछे-पीछे चले।
कुछ दूर चलकर सूरदास जमीन पर बैठ गया और बोला-"मैं पंचों का हुकुम सुनकर तभी आगे जाऊँगा।"
अदालत के बाहर आदलत की मर्यादा-भंग होने का भय न था। कई हजार कंठों से ध्वनि उठी--"तुम बेकसूर हो, हम सब तुम्हें बेकसूर समझते हैं।"
इंद्रदत्त-"अदालत बेईमान है!”
कई हजार आवाजों ने दुहराया-"हाँ, अदालत बेईमान है!" इंद्रदत्त-"अदालत नहीं है, दीनों को बलि-वेदी है।" कई हजार कंठों से प्रतिध्वनि निकली-“अमीरों के हाथ में अत्याचार का यंत्र है।"
चौकीदारों ने देखा, प्रतिक्षण भीड़ बढ़ती और लोग उत्तेजित होते जाते हैं, तो 'लपककर एक बग्घीवाले को पकड़ा और दोनों को उसमें बैठाकर ले चले। लोगों ने कुछ दूर तक तो गाड़ी का पीछा किया, उसके बाद अपने-अपने घर लौट गये।
इधर भैरो अपने गवाहों के साथ घर चला, तो राह में अदालत के अरदली ने घेरा। उसे दो रुपये निकालकर दिये। दूकान में पहुँचते ही मटके खुल गये और ताड़ी के दौर चलने लगे। बुढ़िया पकौड़ियाँ और पूरियाँ पकाने लगी।
एक बोला-“भैरो, यह बात ठीक नहीं, तुम भी बैठो, पियो और पिलाओ। हम-तुम बद-बदकर पियें।"
दूसरा-"आज इतनी पियूँगा कि चाहे यहीं ढेर हो जाऊँ। भैरो, यह कुल्हड़ भर-भर क्या देते हो, हाँडी ही बढ़ा दो।"
भैरो-"अजी, मटके में मुँह डाल दो, हाँडी-कुल्हड़ की क्या बिसात है! आज मुद्दई का सिर नीचा हुआ है।"
तीसरा-"दोनों हिरासत में पड़े रो रहे होंगे। मगर भई, सूरदास को सजा हो गई, तो क्या, वह है बेकसूर।"
भैरो-"आ गये तुम भी उसके धोखे में। इसो स्वाँग की तो वह रोटी खाता है। देखो, बात-की-बात में कैसा हजारों आदमियों का मन फेर दिया।"
चौथा-"उसे किसी देवता का इष्ट है।"
भैरो-"इष्ट तो तब जानें कि जेहल से निकल आये।"
पहला-"मैं बदकर कहता हूँ, वह कल जरूर जेहल से निकल आयेग्ग।"
दूसरा-"बुढ़िया, पकौड़ियाँ ला।"
तीसरा-"अबे, बहुत न पो, नहीं मर जायगा। है कोई घर पर रोनेवाला?"
चौथा-"कुछ गाना हो, उतारो ढोल-मँजोरा।" सबों ने ढोल-मँजीरा सँभाला, और खडे होकर गाने लगे-