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रंगभूमि


भैरो के यहाँ सब-के-सब ताड़ी पीते हैं। वह उन्हें मिलावर तुम्हारी आबरू बिगाड़ देगा। मैं यहाँ न रहूँगी, तो उसका कलेजा ठंडा हो जायगा। बिस की गाँठ तो मैं हूँ।"

सूरदास-"जायगी कहाँ?"

सुभागी-“जहाँ उसके मुँह में कालिख लगा सकूँ, जहाँ उसकी छाती पर मूँगदल सकू।"

सूरदास-"उसके मुँह में कालिख लगेगी, तो मेरे मुँह में पहले ही न लग जायगी, तू मेरी बहन ही तो है?"

सुभागी-"नहीं, मैं तुम्हारी कोई नहीं हूँ। मुझे बहन-बेटी न बनाओ।"

सूरदास-"मैं कहे देता हूँ, इस घर से न जाना।"

सुभागी-"मैं अब तुम्हारे साथ रहकर तुम्हें बदनाम न करूँगी।"

सूरदास-"मुझे बदनामी कबूल है, लेकिन जब तक यह न मालूम हो जाय कि तू कहाँ जायगी, तब तक मैं तुझे जाने ही न दूँगा।"

भैरो ने रात तो किसी तरह काटी। प्रातःकाल कचहरी दौड़ा। वहाँ अभी द्वार बंद थे, मेहतर झाड़ लगा रहे थे, अतएव वह एक वृक्ष के नीचे ध्यान लगाकर बैठ गया। नौ बजे से अमले, बरते बगल में दबाये, आने लगे और भैरों दौड़-दौड़कर उन्हें सलाम करने लगा। ग्यारह बजे राजा साहब इजलास पर आये और भैरो ने मुहरि से लिखाकर अपना इस्तगासा दायर कर दिया। संध्या-समय घर आया, तो बफलने लगा--"अब देखता हूँ, कौन माई का लाल इनकी हिमायत करता है। दोनों के मुँह में कालिख लगवाकर यहाँ से निकाल न दिया, तो बाप का नहीं।

पाँचवें दिन सूरदास और सुभागी के नाम सम्मन आ गया। तारीख पड़ गई। ज्यों-ज्यों पेशी का दिन निकट आता जाता था, सुभागी के होश उड़े जाते थे। बार-बार सूरदास से उलझती-"तुम्हीं यह सब करा रहे हो, अपनी मिट्टी खराब कर रहे हो और अपने साथ मुझे भी घसीट रहे हो। मुझे चली जाने दिया होता, तो कोई तुमसे क्यों बैर ठानता? वहाँ भरी कचहरी में जाना, सबके सामने खड़ी होना मुझे जहर ही-सा लग रहा है। मैं उसका मुँह न देखूगी, चाहे अदालत मुझे मार ही डाले।”

आखिर पेशी की नियत तिथि आ गई। मुहल्ले में इस मुकदमे की इतनी धूम थी कि लोगों ने अपने-अपने काम बंद कर दिये और अदालत में जा पहुंचे। मिल के श्रमजीवी सैकड़ों की संख्या में गये। शहर में सूरदास को कितने ही आदमी जान गये थे। उनकी दृष्टि में सूरदास निरपराध था। हजारों आदमी कुतूहल-वश अदालत में आये; प्रभु सेवक पहले ही पहुँच चुके थे, इंदु रानी और इंद्रदत्त भी मुकद्दमा पेश होते-होते आ पहुँचे। अदालत में यों ही क्या कम भीड़ रहती है, और स्त्री का आना तो मंडर में बधू का आना है। अदालत में एक बाजार-सा लगा हुआ था। इजलास पर दो महाशय विराजमान थे-एक तो चतारी के राजा साहब, दूसरे एक मुसलमान, जिन्होंने