बजरंगी—"अंधेर तो है ही, आँखों से देख रहा हूँ। सूरे को इतना छिछोरा न समझता था। पर मैं कहीं गवाही-साखी करने न जाऊँगा।"
जमुनी—"क्यों, कचहरी में कोई तुम्हारे कान काट लेगा?"
वजरंगी—“अपना मन है, नहीं जाते।”
जमुनी—"अच्छा तुम्हारा मन है! भैरो, तुम मेरी गवाही लिखा दो। मैं चलकर गवाही दूँगी। साँच को आँच क्या!"
बजरंगी—(हँसकर) "तू कचहरी जायगी?"
जमुनी—"क्या करूँगी, जब मरदों की वहाँ जाते चूड़ियाँ मैली होती हैं, तो औरत ही जायगी। किसी तरह इस कसबिन के मुँह में कालिख तो लगे।"
बजरंगी—“भैरो, बात यह है कि सूरे ने बुराई जरूर की, लेकिन तुम भी तो अनीत ही पर चलते थे। कोई अपने घर के आदमी को इतनो बेदरदी से नहीं मरता। फिर तुमने मारा ही नहीं, मारकर निकाल भी दिया। जब गाय की पगहिया न रहेगी, तो वह दूसरों के खेत में जायगी ही। इसमें उसका क्या दोस?”
जमुनी—"तुम इन्हें बकने दो भैरो, मैं तुम्हारी गवाही करूँगी।"
बजरंगी—"तू सोचती होगी, यह धमकी देने से मैं कचहरी जाऊँगा, यहाँ इतने बुद्धू नहीं हैं। और, सच्ची बात तो यह है कि सूरे लाख बुरा हो, मगर अब भी हम सबों से अच्छा है। रुपयों की थैली लौटा देना कोई छोटी बात नहीं।”
जमुनी—"बस चुप रहो, मैं तुम्हें खूब समझती हूँ। तुम भी जाकर चार गाल हँस-बोल आते हो न, क्या इतनी यारी भी न निभाओगे। सुभागी को सजा हो गई, तो तुम्हें भी तो नजर लड़ाने को कोई न रहेगा।"
बजरंगी यह लांछन सुनकर तिलमिला उठा। जमुनी उसका असन पहचानती थी। बोला—"मुँह में कीड़े पड़ जायँगे।"
जमुनी—"तो फिर गवाही देते क्यों कोर दबती है?"
बजरंगी—"लिखा दो भैरो मेरा नाम, यह चुडैल मुझे जीने न देगी। मैं अगर हारता हूँ, तो इसी से। मेरी पीठ में अगर धूल लगाती है, तो यह। नहीं तो यहाँ कभी किसी से दबकर नहीं चले। जाओ, लिखा दो।"
भैरो यहाँ से ठाकुरदीन के पास गया और वही प्रस्ताव किया। ठाकुरदीन ने कहा—"हाँ-हाँ, मैं गवाही करने को तैयार हूँ। मेरा नाम सबसे पहले लिखा दो। अंधे को देखकर मेरी तो अब आँखें फूटती हैं। अब मुझे मालूम हो गया कि उसे जरूर कोई सिद्धि है; नहीं तो क्या सुभागी उसके पीछे यो दौड़ी-दौड़ी फिरती।"
भैरो—"चक्की पीसेंगे, तो बचा को मालूम होगा।"
ठाकुरदीन—"ना भैया, उसका अकबाल भारी है, वह कभी चक्की न पीसेगा, वहाँ से भी बेदाग लौट आयेगा। हाँ, गवाही देना मेरा धरम है, वह मैं दे दूंगा। जो आदमी सिप्द्धि से दूसरों का अनभल करे, उसकी गरदन काट लेनी चाहिए। न जाने क्यों भगवान्