दौड़ा। दोनों खाने बैठे। सुभागी ने सूरदास के सामने चावल और रोटियाँ रख दो ओर मिठुआ के सामने सिर्फ चावल। आटा बहुत कम था, केवल दो रोटियाँ बन सकी थीं।
सूरदास ने कहा—"मिट्ठू, और रोटी लोगे?”
मिट्ठू—"मुझे तो रोटी मिली ही नहीं।"
सूरदास—"तो मुझसे ले लो। मैं चावल ही खा लूँगा।"
यह कहकर सूरदास ने दोनों रोटियाँ मिट्ठू को दे दी। सुभागी क्रुद्ध होकर मिट्ठू से बोली— "दिन-भर साँड़ की तरह फिरते हो, कहीं मजूरी क्यों नहीं करते? इसी चक्को-घर में काम करो, तो पाँच-छ आने रोज मिलें।"
सूरदास—“अभी वह कौन काम करने लायक है। इसी उमिर में मजूरी करने लगेगा, तो कलेजा टूट जायगा!”
सुभागी—"मजूरों के लड़कों का कलेजा इतना नरम नहीं होता। सभी तो काम करने जाते हैं, किसी का कलेजा नहीं टूटता।"
सूरदास—"जब उसका जी चाहेगा, आर काम करेगा।"
सुभागी—"जिसे बिना हाथ-पैर हिलाये खाने को मिल जाय, उसकी बला काम करने जाती है।"
सूरदास—"ऊँह, मुझे कौन किसी रनि-धन का सोच है। माँगकर लाता हूँ, खाता हूँ। जिस दिन पौरुख न चलेगा, उस दिन देखी जायगी। उसकी चिंता अभी से क्यों करूँ?"
सुभागी—"मैं इसे काम पर भेजूंगी। देखू, कैसे नहीं जाता। यह मुटमरदी है कि अँधा माँगे और आँखों वाले मुसंडे बैठे खाये। सुनते हो मिठू, कल से काम करना पड़ेगा।"
मिट्ठू—"तेरे कहने से न जाऊँगा; दादा कहेंगे तो जाऊँगा।"
सुभागी—"मूसल की तरह घूमना अच्छा लगता है। इतना नहीं सूझता कि अन्धा आदमी तो माँगकर लाता है, और मैं चैन से खाता हूँ। जनम-भर कुमार हो बने रहोगे?"
मिट्ठू—"तुझसे क्या मतलब, मेरा जी चाहेगा, जाऊँगा, न जी चाहेगा, न जाऊँगा।"
इसी तरह दोनों में देर तक वाद-विवाद हुआ, यहाँ तक कि मिठुआ झल्लाकर चोके से उठ गया। सूरदास ने बहुत मनाया, पर वह खाने न बैठा। आखिर सूरदास भी आधा ही भोजन करके उठ गया।
जब वह लेटा, तो गृहस्थी का एक दूसरा चित्र उसके सामने था। यहाँ न वह शांति थी, न वह सुषमा, न वह मनोल्लास। पहले ही दिन यह कलह आरंभ हुआ, विस्मिल्लाह ही गलत हुई, तो आगे कौन जाने, क्या होगा। उसे सुभागी की यह कठोरता अनुचित प्रतीत होती थी। जब तक मैं कमाने को तैयार हूँ, लड़के पर क्यों गृहस्थी का बोझ डालूँ? जब मर जाऊँगा, तो उसके सिर पर जैसी पड़ेगी, वैसी से।