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रंगभूमि


ईश्वर सेवक पहले ही अपने तामजान पर बैठकर चल दिये थे। जॉन सेवक ने आकर केवल इतना पूछा-"क्या बहुत ज्यादा दर्द है? मैं उधर से कोई दवा लेता आऊँगा, जरा पढ़ना कम कर दो, और रोज़ घूमने जाया करो।"

यह कहकर वह प्रभु सेवक के साथ फिटन पर आ बैठे। लेकिन मिसेज़ सेवक इतनी आसानी से उसका गला छोड़नेवाली न थीं। बोलीं-"तुझे ईसू के नाम से क्यों इतनी घृणा है?"

सोफ़िया--"मैं हृदय से उन पर श्रद्धा रखती हूँ!"

माँ-"तू झूठ बोलती है।”

सोफिया-"अगर दिल में श्रद्धा न होती, तो जवान से कदापि न कहती।"

माँ-तू प्रभु मसीह को अपना मुक्तिदाता समझती है? तुझे यह विश्वास है कि वही तेरा उद्धार करेंगे?"

सोफिया-"कदापि नहीं। मेरा विश्वास है कि मेरी मुक्ति, अगर मुक्ति हो सकती है, तो मेरे कर्मों से होगी।"

माँ-"तेरे कर्मों से तेरे मुँह में कालिख लगेगी, मुत्ति न होगी।"

यह कहकर मिसेज़ सेवक भी फ़िटन पर जा बैठी। संध्या हो गई थी। सड़क पर ईसाइयों के दल-के-दल, कोई ओवरकोट पहने, कोई माघ की ठंड से सिकुड़े हुए, खुश गिरजे चले जा रहे थे; पर सोफिया को सूर्य की मलिन ज्योति भी असह्य हो रही थी, वह एक ठंडी साँस खींचकर बैठ गई। "तेरे कर्मों से तेरे मुँह में कालिख लगेगी”—ये शब्द उसके अंतःकरण को भाले के समान वेधने लगे। सोचने लगी-"मेरी स्वार्थ-सेवा का यही उचित दंड है। मैं केवल रोटियों के लिए अपनी आत्मा को हत्या कर रही हूँ, अपमान और अनादर के झोंके सह रही हूँ। इस घर में कौन मेरा हितैषी है? कौन है, जो मेरे मरने की खबर पाकर आँसू की चार बूंदें गिरा दे? शायद मेरे मरने से लोगों को खुशी होगी। मैं इनकी नज़रों में इतनी गिर गई हूँ! ऐसे जीवन पर धिक्कार है! मैंने देखे हैं, हिंदू-घरानों में भिन्न-भिन्न मतों के प्राणी कितने प्रेम से रहते हैं। बाप सना-तन-धर्मावलंबी है, तो बेटा आर्यसमाजी। पति ब्रह्मसमाज में है, तो स्त्री पाषाण-पूजकों में। सब अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। कोई किसी से नहीं बोलता। हमारे यहाँ आत्मा कुचली जाती है। फिर भी यह दावा है कि हमारी शिक्षा और सभ्यता विचार-स्वातंत्र्य के पोषक हैं। हैं तो हमारे यहाँ भी उदार विचारों के लोग, प्रभु सेवक ही उनकी एक मिसाल है, पर इनकी उदारता यथार्थ में विवेक-शून्यता है। ऐसे उदार प्राणियों से तो अनुदार ही अच्छे। इनमें कुछ विश्वास तो है, निरे बहुरुपिये तो नहीं हैं। आखिर मामा अपने दिल में क्या समझती हैं कि बात-बात पर वाग्वाणों से छेदने लगती हैं? उनके दिल में यही विचार होगा कि इसे कहीं और ठिकाना नहीं है, कोई इसका पूछने-वाला नहीं है। मैं इन्हें दिखा दूँगी कि मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हूँ। अब इस घर में रहना नरक-वास के समान है। इस बेहयाई की रोटियाँ खाने से भूखों मर जाना