यह कहकर वह वेग से चला और कई पग चलकर उसी वृक्ष के नीचे अदृश्य हो गया। विनयसिंह कुछ देर तक तो संशय में पड़े हुए उसकी राह देखते रहे, फिर नायकराम से बोले- "इस धूर्त ने तो बुरा फँसाया। यहाँ इस निर्जन स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया कि बिना मौत ही मर जायँ। अभी तक लौटकर नहीं आया।"
नायकराम-"तुम्हें क्या चिंता, आसिक लोग तो जान हथेली पर लिये ही रहते हैं, मरे तो हम कि सूखे ही पर रहे।"
विनय-"मैं इसकी नीयत को ताड़ गया था।"
नायकराम-"तो फिर क्यों बिना कान-पूँछ हिलाये चले आये? अपने साथ मुझे भी डुबाया! क्या इस्क में अकिल घनचक्कर हो जाती है?"
विनय-"आधा घंटा तो हुआ, अभी तक किसी का पता ही नहीं। यहाँ से भागना भी चाहें, तो कहाँ जाय। इसने जरूर दगा को। जिंदगी का यहीं तक साथ था।"
नायकराम-"आसिक होकर मरने से डरते हो! मरना तो एक दिन है ही, आज ही सही। डर क्या! जब ओखली में सिर दिया, तो मूसलों का क्या गम, मारे उसका जितना जी चाहे।"
विनय-“कहीं सचमुच सोफिया आ जाय!"
नायकराम-"फिर क्या कहने, लपककर टाँग लेना, मजा तो जब आये कि तुम हाय-हाय करके रोने लगो और वह अंचल से तुम्हारे आँसू पोंछे।"
विनय-"भई देखना, मैं उसे देखकर रो पड़ें, तो हँसना मत। उसे देखते हो दौड़ें गा और ऐसे जोर से पकडूंगा कि छुड़ा न सके।"
नायकराम-"यह मेरा अँगोछा ले लो, चट उसके पैर बाँध देना।"
विनय-"तुम हँसी उड़ा रहे हो और मेरा हृदय धड़क रहा है कि न जाने क्या होनेवाला है। आह! मैं समझ गया! मैं इधर से एक बार गया हूँ। हम जसवन्तनगर के आस-पास कहीं हैं। इन्द्रदत्त हमें भ्रम में डालने के लिए इतना चकर देकर लाया है।"
नायकराम-"जसवन्तनगर यही हो, तो हमें क्या। हम चिल्लायें, तो कौन सुनेगा!"
विनय-"क्या सचमुच इसने धोखा किया क्या? मेरा तो जी चाहता है कि यहाँ मे किसी ओर को चल दूँ। अगर सोफी ने कठोर बातें कहनी शुरू की, तो मेरा दिल फट जायगा। जिसके हित के लिए इतने अवर्म और अकर्म किये, उसकी निर्दयता कैसे सही जायगी? ऐसी ही बातों से संसार से जी खट्टा हो जाता है। जिसके लिए चोर बने, वही पुकारे चोर!”
नायकराम-"स्त्रियों का यही हाल है।"
विनय-"हाँ, जो सुना करता था, वह आँखों के आगे आया।"
नायकराम—“मैं यह अंगोछा बिछाये देता हूँ, पत्थर ठंडा हो गया है, आराम से