इंद्रदत्त-"दोस्ती के पीछे दूसरों की जान क्यों विपत्ति में डालूँ?"
विनय-"मैं माता के चरणों की कसम खाकर कहता हूँ, मैं इसे गुप्त रखूँगा। मैं केवल एक बार सोफिया से मिलना चाहता हूँ।"
इंद्रदत्त-"काठ की हाँड़ी बार-बार नहीं चढ़ती।"
विनय-"इंद्र, मैं जीवन-पर्यंत तुम्हारा उपकार मानूँगा।"
इंद्रदत्त-"जी नहीं, बिल्ली बख्शे, मुरगा बाँड़ा ही अच्छा।"
विनय-"मुझसे जो कमम चाहे, ले लो।"
इंद्रदत्त-"जिस बात के बतलाने का मुझे अधिकार नहीं; उसे बतलाने के लिए आप मुझसे व्यर्थ आग्रह कर रहे हैं।"
विनय-"तुम पाषाण-हृदय हो।"
इंद्रदत्त-"मैं उससे भी कठोर हूँ। मुझे जितना चाहिए, कोस लीजिए, पर सोफी के विषय में मुझसे कुछ न पूछिए।"
नायकराम-"हाँ भैया, बस यही टेक चली जाय। मरदों का यही काम है। दो टूक कह दिया कि जानते हैं, लेकिन बतलायेंगे नहीं, चाहे किसी को भला लगे या बुरा।”
इंद्रदत्त-"अब तो कलई खुल गई न? क्यों कुँवर साहब महाराज, अब तो बढ़-बढ़कर बातें न करोगे?"
विनय-"इंद्रदत्त, जले पर नमक न छिड़को। जो बात पूछता हूँ, बतला दो; नहीं तो मेरी जान को रोना पड़ेगा। तुम्हारी जितनी खुशामद कर रहा हूँ, उतनी आज तक किसी की नहीं की थी; पर तुम्हारे ऊपर जरा भी असर नहीं होता।
इंद्रदत्त-"मैं एक बार कह चुका कि मुझे जिस बात के बतलाने का अधिकार नहीं, वह किसी तरह न बताऊँगा। बस, इस विषय में तुम्हारा आग्रह करना व्यर्थ है। यह लो, अपनी राह जाता हूँ। तुम्हें जहाँ जाना हो, जाओ।"
नायकराम-“सेठ जी, भागो मत, मिस साहब का पता बताये विना न जाने पाओगे।"
इंद्रदत्त-"क्या जबरदस्ती पूछोगे?"
नायकराम-"हाँ, जबरदस्ती पूछू गा, बाम्हन होकर तुमसे भिक्षा माँग रहा हूँ और तुम इनकार करते हो, इसी पर धर्मात्मा, सेवक, चाकर बनते हो! यह समझ लो, बाम्हन भीख लिये बिना द्वार से नहीं जाता, नहीं पाता, तो धरना देकर बैठ जाता है, और फिर ले ही कर उठता है।"
इंद्रदत्त-"मुझसे ये पंडई चालें न चलो, समझे! ऐसे भीख देनेवाले कोई और होंगे।"
नायकराम-"क्यों बाप-दादों का नाम डुबाते हो भैया, कहता हूँ, यह भीख दिये बिना अब तुम्हारा गला नहीं छूट सकता।"
यह कहते हुए नायकराम चट जमीन पर बैठ गये, इंद्रदत्त के दोनों पैर पकड़ लिये,