सुनाती थी। इस परीक्षा से बचने के लिए वह नित्य बहाने हूँढ़ती रहती थी। अतः अपने कृत्रिम जीवन से उसे घृणा होती जाती थी। उसे बार बार प्रबल अंतःप्रेरणा होती कि घर छोड़कर कहीं चली जाऊँ, और स्वाधीन होकर सत्यासत्य की विवेचना करूँ; पर इच्छा व्यवहार-क्षेत्र में पैर रखते हुए संकोच से विवश हो जाती थी। पहले प्रभु सेवक से अपनी शंकाएँ प्रकट करके वह शांत-चित्त हो जाया करती थी; पर ज्यों-ज्यों उनकी उदासीनता बढ़ने लगी, सोफिया के हृदय से भी उनके प्रति प्रेम और आदर उठने लगा। उसे धारणा होने लगी कि इनका मन केवल भोग और विलास का दास है। जिसे सिद्धान्तों से कोई लगाव नहीं। यहाँ तक कि उनकी काव्य-रचनाएँ भी, जिन्हें वह पहले बड़े शौक से सुना करती थी, अब उसे कृत्रिम भावों से परिपूर्ण मालूम होतीं। वह बहुधा टाल दिया करती कि मेरे सिर में दर्द है, सुनने को जी नहीं चाहता। अपने मन में कहती, इन्हें उन सद्भावों और पवित्र आवेगों को व्यक्त करने का क्या अधिकार है, जिनका आधार आत्मदर्शन और अनुभव पर न हो।
एक दिन जब घर के सब प्राणी गिरजाघर जाने लगे, तो सोफिया ने सिर-दर्द का बहाना किया। अब तक वह शंकाओं के होते हुए भी रविवार को गिरजा-घर चली जाया करती थी। प्रभु सेवक उसका मनोभाव ताड़ गये, बोले-"सोफी, गिरजा जाने में तुम्हें क्या आपत्ति है? वहाँ जाकर आध घंटे चुपचाप बैठे रहना कोई ऐसा मुश्किल काम नहीं।"
प्रभु सेवक बड़े शौक से गिरजा जाया करते थे, वहाँ उन्हें बनाव और दिखाव, पाखंड और ढकोसलों की दार्शनिक मीमांसा करने और व्यंग्योक्तियों के लिए सामग्री जमा करने का अवसर मिलता था। सोफिया के लिए आराधना विनोद की वस्तु नहीं, शांति और तृप्ति की वस्तु थी। बोली-'तुम्हारे लिए आसान हो, मेरे लिए मुश्किल ही है।"
प्रभु सेवक—"क्यों अपनी जान बवाल में डालती हो। अम्माँ का स्वभाव तो जानती हो!"
सोफिया—“मैं तुमसे परामर्श नहीं चाहती, अपने कामों की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने को तैयार हूँ।”
मिसेज़ सेवक ने आकर पूछा—"सोफी, क्या सिर में इतना दर्द है कि गिरजे तक नहीं चल सकती?"
सोफिया—"जा क्यों नहीं सकती; पर जाना नहीं चाहती।"
मिसेज़ सेवक—"क्यों?”
सोफिया—"मेरी इच्छा। मैंने गिरजा जाने की प्रतिज्ञा नहीं की है।"
मिसेज़ सेवक—"क्या तू चाहती है कि हम कहीं मुँह दिखाने के लायक न रहें?"
सोफिया—"हरगिज़ नहीं, मैं सिर्फ इतना ही चाहती हूँ कि आप मुझे चर्च जाने के लिए मजबूर न करें!"