थे। उन्हें विश्वास था कि सोफी अभी जिंदा है। विद्रोहियों ने जमानत के तौर पर उसे अपने यहाँ कैद कर रखा है, जिसमें संधि की शर्ते तय करने में सुविधा हो। सोफी रियासत को दबाने के लिए उनके हाथों में एक यंत्र के समान थी।
इस दुर्घटना से रियासत में तहलका मच गया। अधिकारिवर्ग आपको डरते थे, प्रजा आपको। अगर रियासत के कर्मचारियों ही तक बात रहती, तो विशेष चिंता की बात न थी, रियासत खून के बदले खून लेकर संतुष्ट हो जाती, ज्यादा-से-ज्यादा एक की जगह चार का खून कर डालती। पर सोफी के बीच में पड़ जाने से समस्या जटिल हो गई थी, मुआमला रियासत के अधिकार-क्षेत्र के बाहर पहुँच गया था, यहाँ तक कि लोगों को भय था, रियासत पर कोई जवाल न आ जाय। इसलिए अपराधियों
की पकड़-धकड़ में असाधारण तत्परता से काम लिया जा रहा था। संदेह-मात्र पर लोग फाँस दिये जाते थे और उनको कठोरतम यातनाएँ दी जाती थीं। साक्षी और प्रमाण की कोई मर्यादा न रह गई थी। इन अपराधियों के भाग्य-निर्णय के लिए एक अलग न्यायालय खोल दिया गया था। उसमें मँजे हुए प्रजा-द्रोहियों की छाँट-छाँटकर नियुक्त किया गया था। यह अदालत किसी को छोड़ना न जानती थी। किसी अभियुक्त को प्राण-दंड देने के लिए एक सिपाही की शहादत काफी थी। सरदार नीलकंठ बिना अन्न- जल, दिन-के-दिन विद्रोहियों की खोज लगाने में व्यस्त रहते थे। यहाँ तक कि हिज हाइनेस महाराजा साहब स्वयं शिमला, दिल्ली और उदयपुर एक किये हुए थे। पुलिस-कर्मचारियों के नाम रोज ताकीदें भेजी जाती थीं। उधर शिमला से भी ताकीदों का ताँता बँधा हुआ था। ताकीदों के बाद धमकियाँ आने लगीं। उसी अनुपात से यहाँ प्रजा पर भी उत्तरोत्तर अत्याचार बढ़ता जाता था। मि० क्लार्क को निश्चय था कि इस विद्रोह में रियासत का हाथ भी अवश्य था। अगर रियासत ने पहले ही से विद्रोहियों का जीवन कठिन कर दिया होता, तो वे कदापि इस भाँति सिर न उठा सकते। रियासत के बड़े-से- बड़े अधिकारी भी उनके सामने जाते काँपते थे। वह दौरे पर निकलते, तो एक अँगरेजी
रिसाला साथ ले लेते और इलाके-के-इलाके उजड़वा देते, गाँव-के-गाँव तबाह करवा देते, यहाँ तक कि स्त्रियों पर भी अत्याचार होता था। और, सबसे अधिक खेद की बात यह थी कि रियासत और क्लार्क के इन सारे दुष्कृत्यों में विनय भी मनसा, वाचा, कर्मणा सहयोग करते थे। वास्तव में उन पर प्रमाद का रंग छाया हुआ था। सेवा और उपकार के भाव हृदय से संपूर्णतः मिट गये थे। सोफ़ी और उसके शत्रुओं का पता लगाने का उद्योग, यही एक काम उनके लिए रह गया था। मुझे दुनिया क्या कहती है, मेरे जीवन का क्या उद्देश्य है, माताजी का क्या हाल हुआ, इन बातों की ओर अब उनका ध्यान हो न जाता था। अब तो वह रियासत के दाहने हाथ बने हुए थे। अधिकारी समय-समय पर उन्हें और भी उत्तेजित करते रहते थे। विद्रोहियों के दमन में कोई पुलिस का कर्मचारी, रियासत का कोई नौकर इतना हृदयहीन, विचारहीन, न्यायहीन न बन सकता था! उन की राज-भक्ति का वारापार न था, या यों कहिए कि इस समय वह रियासत के