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मिस्टर विलियम क्लार्क अपने अन्य स्वदेश-बंधुओं की भाँति सुरापान के भक्त थे, पर उसके वशीभूत न थे। वह भारतवासियों की भाँति पीकर छकना न जानते थे। घोड़े पर सवार होना जानते थे, उसे काबू से बाहर न होने देते थे। पर आज सोफी ने जान-बूझ-कर उन्हें मात्रा से अधिक पिला दी थी, बढ़ावा देती जाती थी-वाह! इतनी ही, एक ग्लास तो और लो, अच्छा, यह मेरी खातिर से, वाह! अभी तुमने मेरे स्वास्थ्य का प्याला तो पिया ही नहीं। सोफी ने विनय से कल मिलने का वादा किया था, पर उनकी बातें उसे एक क्षण के लिए भी चैन न लेने देती थीं। वह सोचती थी-"विनय ने आज ये नये बहाने क्यों दूँढ़ निकाले? मैंने उनके लिए धर्म की भी परवा न की, फिर भी वह मुझसे भागने की चेष्टा कर रहे हैं। अब मेरे पास और कौन-सा उपाय है? क्या प्रेम का देवता इतना पाषाण-हृदय है, क्या वह बड़ी-से-बड़ी पूजा पाकर भी प्रसन्न नहीं होता? माता की अप्रसन्नता का इतना भय उन्हें कभी न था। कुछ नहीं, अब उनका प्रेम शिथिल हो गया है। पुरुषों का चित्त चंचल होता है, इसका एक और प्रमाण मिल गया। अपनी अयोग्यता का कथन उनके मुँह से कितना अस्वाभाविक मालूम होता है! वह, जो इतने उदार, इतने विरक्त, इतने सत्यवादी, इतने कर्तव्यनिष्ट हैं, मुझसे कहते हैं, मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ! हाय! वह क्या जानते हैं कि मैं उनसे कितनी भक्ति रखती हूँ, मैं इस योग्य भी नहीं कि उनके चरण स्पर्श करूँ। कितनी पवित्र आत्मा है, कितने उज्ज्वल विचार, कितना अलौकिक आत्मोत्सर्ग! नहीं, वह मुझसे दूर रहने ही के लिए ये बहाने कर रहे हैं। उन्हें भय है कि मैं उनके पैरों की जंजोर बन जाऊँगो, उन्हें कर्तव्य-मार्ग में हटा दूँगी, उनको आदर्श से विमुख कर दूँगी। मैं उनकी इस शंका का कैसे निवारण करूँ?"

दिन-भर इन्हीं विचारों में व्यग्र रहने के बाद संध्या को वह इतनी विकल हुई कि उसने रात ही को विनय से फिर मिलने का निश्चय किया। उसने क्लार्क को शराब पिला- कर इसीलिए अचेत कर दिया था कि उसे किसी प्रकार का संदेह न हो। जेल के अधिकारियों से उसे कोई भय न था। वह इस अवसर को विनय से अनुनय-विनय करने में, उनके प्रेम को जगाने में, उनकी शंकाओं को शांत करने में लगाना चाहती थी; पर उसका यह प्रयास उसी के लिए घातक सिद्ध हुआ। मिस्टर क्लार्क मौके पर पहुँच सकते, तो शायद स्थिति इतनी भयंकर न होती, कम-से-कम सोफी को ये दुर्दिन न देखने पड़ते। क्लार्क अपने प्राणों से उसकी रक्षा करते। सोफी ने उनसे दगा करके अपना ही सर्वनाश कर लिया। अब वह न जाने कहाँ और किस दशा में थी। प्रायः लोगों का विचार था कि विद्रोहियों ने उसकी हत्या कर डाली और उसके शव को आभूषणों के लोम से अपने साथ ले गये। केवल विनयसिंह इस विचार से सहमत न