सहसा सामने से एक आदमी आता हुआ दिखाई दिया। विनय ने समझा, कोई चौकीदार होगा। डरा कि मुझे यहाँ खड़ा देखकर कहीं उसके दिल में संदेह न हो जाय। धीरे से कमरे की ओर चला। इतना भीरु वह कभी न हुआ था। तोप के सामने खड़ा सिपाही भी बिच्छू को देखकर सशंक हो जाता है।
विनय कमरे में गये ही थे कि पीछे से वह आदमी भी अंदर आ पहुँचा। विनय ने चौंककर पूछा "कौन!"
नायकराम बोले-"आपका गुलाम हूँ, नायकराम पण्डा।"
विनय-"तुम यहाँ कहाँ? अब याद आया, आज तुम्हीं तो दारोगा के साथ पगड़ी बाँधे खड़े थे? ऐसी सूरत बना ली थी कि पहचान ही में न आते थे। तुम यहाँ कैसे आ गये।"
नायकराम-"आप ही के पास तो आया हूँ।"
विनय-"झूठे हो। यहाँ कोई यजमानी है क्या?"
नायकराम-"जजमान कैसे, यहाँ तो मालिक हो हैं।"
विनय-"कब आये, कब? वहाँ तो सब कुशल है?”
नायकराम-"हाँ, सब कुशल ही है। कुँवर साहब ने जब से आपका हाल सुना है, बहुत घबराये हुए हैं, रानीजी भी बीमार हैं?"
विनय-"अम्माँजी कब से बीमार हैं?"
नायकराम-"कोई एक महीना होने आता है। बस घुली जाती हैं। न कुछ खाती हैं, न पीती हैं, न किसी से बोलती हैं। न जाने कौन रोग है कि किसी बैद, हकीम, डाक्टर की समझ ही में नहीं आता। दूर-दूर के डाक्टर बुलाये गये हैं, पर मरज की थाह किसी को नहीं मिलती। कोई कुछ बताता है, कोई कुछ। कलकत्ते से कोई कबिराज आये हैं, वह कहते हैं, अब यह बच नहीं सकतीं। ऐसी घुल गई हैं कि देखतेः डर लगता है। मुझे देखा, तो धीरे से बोली- पण्डाजी, अब डेरा कूच है। अब मैं खड़ा-खड़ा रोता रहा।"
विनय ने सिसकते हुए कहा-"हाय ईश्वर! मुझे माता के चरणों के दर्शन भी न होंगे क्या?"
नायकराम-"मैंने जब बहुत पूछा, सरकार किसी को देखना चाहती हैं, तो आँखों में आँसू भरकर बोलीं, एक बार विनय को देखना चाहती हूँ, पर भाग्य में देखना बदा नहीं है, न जाने उसका क्या हाल होगा।"
विनय इतना रोये कि हिचकियाँ बँध गई। जब जरा आवाज काबू में हुई, तो बोले-"अम्माँजी को कभी किसी ने रोते नहीं देखा था। अब चित्त व्याकुल हो रहा है। कैसे उनके दर्शन पाऊँगा? भगवान् न जाने किन पापों का यह दंड मुझे दे रहे हैं।"
नायकराम-"मैंने पूछा, हुक्म हो, तो जाकर उन्हें लिवा लाऊँ। इतना सुना था कि वह जल्दी से उठकर बैठ गई और मेरा हाथ पकड़कर बोलीं-'तुम उसे लिवा