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रंगभूमि


यहाँ किसी रूपमयी सुंदरी से बातें करने लगो, तो चित्त मलिन हो जाता है, या तो शीन-काफ ठीक नहीं, या लिंग-भेद का ज्ञान नहीं। सोफी के लिए व्रत, नियम, सिद्धांत की उपेक्षा करना क्षम्य ही नहीं, श्रेयस्कर भी है। यह मेरे लिए, जीवन और मरण का प्रश्न है। उसके बगैर मेरा जीवन एक सूखे वृक्ष की भाँति होगा, जिसे जल की अविरत वर्षा भी पल्लवित नहीं कर सकती। मेरे जीवन की उपयोगिता, सार्थकता ही लुप्त हो जायगी। जीवन रहेगा, पर आनंद-विहीन, प्रेम-विहीन, उद्देश्य विहीन!"

विनय इन्हीं विचारों में डुबा हुआ था कि दारोगाजी आकर बैठ गये और बोले-"मालूम होता है, अब यह बला सिर से जल्द ही टलेगी। एजेंट साहब यहाँ से कूच करनेवाले हैं। सरदार साहब ने शहर में डौंडी फिरवा दी है कि अब किसी को कस्बे से बाहर जाने की जरूरत नहीं। मालूम होता है, मेम साहब ने यह हुक्म दिया है।"

विनय-"मेम साहब बड़ी विचारशील महिला हैं।"

दारोगा-"यह बहुत ही अच्छा हुआ, नहीं तो अवश्य उपद्रव हो जाता और सैकड़ों जानें जातीं।" जैसा तुमने कहा, मेम साहब बड़ी विचारशील हैं; हालाँकि उम्र अभी कुछ नहीं।"

विनय-"आपको खूब मालूम है कि वह कल यहाँ से चली जायगी?"

दारोगा-"हाँ, और क्या, सुनी-सुनाई कहता हूँ? हाकिमों की बातों की घंटे-घंटे टोह लगती रहती है। रसद और बेगार, जो एक सप्ताह के लिए ली जानेवाली थी, बंद कर दी गई है।"

विनय-“यहाँ फिर न आयेंगी?”

दारोगा-"तुम तो इतने अधीर हो रहे हो, मानों उन पर आसक्त हो।"

विनय ने लजित होकर कहा-"मुझसे उन्होंने कहा था कि कल तुम्हें देखने आऊँगी।"

दारोगा-"कह दिया होगा, पर अब उनकी तैयारी है। यहाँ तो खुश हैं कि बेदाग बच गये, नहीं तो और सभी जगह जेलरों पर जुरमाने किये हैं।"

दारोगाजी चले गये, तो विनय सोचने लगा-"सोफिया ने कल आने का वादा किया था। क्या अपना वादा भूल गई? अब न आयेगी? यदि एक बार आ जाती, तो मैं उसके पैरों पर गिरकर कहता, सोफी, मैं अपने होश में नहीं हूँ। देवी अपने उपासक से.इसलिए तो अप्रसन्न नहीं होती कि वह उसके चरणों को स्पर्श करते हुए भी झिझकता है। यह तो उपासक की अश्रद्धा का नहीं, असीम श्रद्धा का चिह्न है।"

ज्यों-ज्यों दिन गुजरता था, विनय की व्यग्रता बढ़ती जाती थी। मगर अपने मन की व्यथा किससे कहे। उसने सोचा—"रात को यहाँ से किसी तरह भागकर सोफी के पास जा पहुँचूँ! हा दुर्दैव, वह मेरी मुक्ति का आज्ञा-पत्र तक लाई थी, उस वक्त मेरे सिर पर न जाने कौन-सा भूत सवार था।"

सूर्यास्त हो रहा था। विनय सिर झुकाये दफ्तर के सामने टहल रहा था। सहसा