नायकराम—"चलिए, कौन जाने, कभी आपकी सेवा में आना ही पड़े। पहले से ठौर-ठिकाना देख लूँ। महाराजा साहब के लड़के ने कौन कसूर किया था?"
दारोगा—“कसूर कुछ नहीं था, बस, हाकिमों की जिद है। यहाँ देहातों में घूम-घूमकर लोगों को उपदेश करता था, बस, हाकिमों को उस पर सन्देह हो गया कि यह राजविद्रोह फैला रहा है। यहाँ लाकर कैद कर दिया। मगर आप तो अभी उसे देखिएगा ही, ऐसा गंभीर, शांत, विचार-शील आदमी आज तक मैंने नहीं देखा, हाँ, किसी से दबता नहीं । खुशामद करके चाहे कोई पानी भरा ले; पर चाहो कि रोब से उसे दबा लें, तो जौ-भर भी न दबेगा।"
नायकराम दिल में खुश थे कि "बड़ी अच्छी साइत से चला था कि भगवान् आप ही सब द्वार खोले देते हैं। देखूँ, अब विनयसिंह से क्या बात होती है। यों तो वह न जायेंगे, पर रानीजी की बीमारी का बहाना करना पड़ेगा। वह राजी हो जायँ, यहाँ से निकाल ले जाना तो मेरा काम है। भगवान् की इतनी दया हो जाती, तो मेरी मनो-कामना पूरी हो जाती, घर बस जाता, जिन्दगी सुफल हो जाती।"