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रंगभूमि


बन सको, पर मेरी दबी हुई आग को जगानेवाली हवा अवश्य बन जाओगी। माताजी ने बहुत सोच-समझकर मुझे यह व्रत दिया है। मुझे भय होता है कि एक बार मैं इस बंधन से मुक्त हुआ, तो वासना मुझे इतने वेग से बहा ले जायगी कि फिर शायद मेरे अस्तित्व का पता ही न चले। सोफी, मुझे इस कठिनतम परीक्षा में न डालो। मैं यथार्थ में बहुत दुर्बल-चरित्र, विषयसेवी प्राणी हूँ। तुम्हारी नैतिक विशालता मुझे भयभीत कर रही है। हाँ, मुझ पर इतनी दया अवश्य करो कि आज यहाँ से किसो दूसरी जगह प्रस्थान कर दो।"

सोफी-"क्या मुझसे इतनी दूर भागना चाहते हो?"

विनय-"नहीं-नहीं, इसका और ही कारण है। न जाने क्योंकर यह विज्ञप्ति निकल गई है कि जसवंतनगर एक सप्ताह के लिए खाली कर दिया जाय। कोई जवान आदमो कस्बे में न रहने पाये। मैं तो समझता हूँ, सरदार साहब ने तुम्हारी-रक्षा के लिए यह व्यवस्था की है; पर लोग तुम्हीं को बदनाम कर रहे हैं।"

सोफी और क्लार्क का परस्पर तर्क-वितर्क सुनकर सरदार नीलकंठ ने तत्काल यह हुक्म जारी कर दिया था। उन्हें निश्चय था कि मेम साहब के सामने साहब की एक न चलेगी और विनय को छोड़ना पड़ेगा। इसलिए पहले ही से शांति-रक्षा का उपाय करना आवश्यक था। सोफी ने विस्मित होकर पूछा-"क्या ऐसा हुक्म दिया गया है?"

विनय-"हाँ, मुझे खबर मिली है। कोई चपरासी कहता था।"

सोफी- "मुझे जरा भी खबर नहीं। मैं अभी जाकर पता लगाती हूँ और इस हुक्म को मंसूख करा देती हूँ। ऐसी ज्यादती रियासतों के सिवा और कहीं नहीं हो सकती। यह सब तो हो जायगा, पर तुम्हें अभी मेरे साथ चलना पड़ेगा।"

विनय-"नहीं सोफी, मुझे क्षमा करो। दूर का सुनहरा दृश्य समीप आकर बालू का मैदान हो जाता है। तुम मेरे लिए आदर्श हो। तुम्हारे प्रेम का आनंद मैं कल्पना ही द्वारा ले सकता हूँ। डरता हूँ कि तुम्हारी दृष्टि में गिर न जाऊँ। अपने को कहाँ तक गुप्त रखूँगा? तुम्हें पाकर फिर मेरा जीवन नीरस हो जायगा, मेरे लिए उद्योग और उपासना की कोई वस्तु न रह जायगी। सोफी, मेरे मुँह से न जाने क्या-क्या अनर्गल बातें निकल रही हैं। मुझे स्वयं संदेह हो रहा है कि मैं अपने होश में हूँ या नहीं। भिक्षुक राज सिंहासन पर बैठकर अस्थिर चित्त हो जाय, तो कोई आश्चर्य नहीं। मुझे यहीं पड़ा रहने दो। मेरो तुमसे यही अंतिम प्रार्थना है कि मुझे भूल जाओ।"

सोफी-"मेरी स्मरण-शक्ति इतनी शिथिल नहीं है।"

विनय-"कम-से-कम मुझे यहाँ से जाने के लिए विवश न करो; क्योंकि मैंने निश्चय कर लिया है, मैं यहाँ से न जाऊँगा। कस्बे की दशा देखते हुए मुझे विश्वास नहीं है कि मैं जनता को काबू में रख सकूँगा।”

सोफी ने गंभीर भाव से कहा-"जैसी तुम्हारी इच्छा। मैं तुम्हें जितना सरल-हृदय समझती थी, तुम उससे कहीं बढ़कर कूटनीतिज्ञ हो। मैं तुम्हारा आशय समझती हूँ;