क्लार्क-"हाँ, थक गया हूँ, अब सोऊँगा। तुम्हारे इस पत्र से रियासत में तहलका पड़ जायगा।"
सोफी-"अगर तुम्हें इतना भय है, तो मैं इस पत्र को फाड़े डालती हूँ। इतना नहीं गुदगुदाना चाहती कि हँसी के बदले रोना आ जाय। बैठते हो, या देखो, यह लिफाफा फाड़ती हूँ।"
क्लार्क-"कुर्सी पर उदासीन भाव से बैठ गये और बोले-“लो बैठ गया, क्या कहती हो?"
सोफी-"कहती कुछ नहीं हूँ, धन्यवाद का गीत सुनते जाओ।"
क्लार्क-"धन्यवाद की जरूरत नहीं।"
सोफी ने फिर गाना शुरू किया और क्लार्क चुपचाप बैठे सुनते रहे। उनके मुख पर करुण प्रेमाकांक्षा झलक रही थी। यह परख और परीक्षा कब तक? इस क्रीड़ा का कोई अन्त भी है? इस आकांक्षा ने उन्हें साम्राज्य की चिन्ता से मुक्त कर दिया-आह! काश अब भी मालूम हो जाता कि तू इतनी बड़ी भेंट पाकर प्रसन्न हो गई! सोफी ने उनकी प्रेमाग्नि को खूब उदीप्त किया और तब सहसा प्यानो बन्द कर दिया और बिना कुछ बोले हुए अपने शयनागार में चली गई। क्लार्क वहीं बैठे रहे, जैसे कोई थका हुआ मुसाफिर अकेला किसी वृक्ष के नीचे बैठा हो।
सोफी ने सारी रात भावी जीवन के चित्र खींचने में काटी, पर इच्छानुसार रंग न दे सकी। पहले रंग भरकर उसे जरा दूर से देखती, तो विदित होता, धूप की जगह छाँह है, छाँह की जगह धूप, लाल रंग का आधिक्य है, बाग में अस्वाभाविक रमणीयता, पहाड़ों पर जरूरत से ज्यादा हरियाली, नदियों में अलौकिक शांति। फिर ब्रुश लेकर इन त्रुटियों को सुधारने लगती, तो सारा दृश्य जरूरत से ज्यादा नीरस, उदास और मलिन हो जाता। उसकी धार्मिकता अब अपने जीवन में ईश्वरीय व्यवस्था का रूप देखती थी। भब ईश्वर ही उसका कर्णधार था, वह अपने कर्माकर्म के गुण-दोष से मुक्त थी।
प्रातःकाल वह उठी, तो मि० क्लार्क सो रहे थे। मूसलधार वर्षा हो रही थी। उसने शोफर को बुलाकर मोटर तैयार करने का हुक्म दिया और एक क्षण में जेल की तरफ चली, जैसे कोई बालक पाठशाला से घर की तरफ दौड़े।
उसके जेल पहुँचते ही हलचल-सी पड़ गई। चौकीदार आँखेंमलते हुए दौड़-दौड़कर वर्दियाँ पहनने लगे। दारोगाजी ने उतावली में उलटी अचकन पहनी और बेतहाशा दौड़े। डॉक्टर साहब नंगे पाँव भागे, याद न आया कि रात को जूते कहाँ रखे थे, और इस समय तलाश करने की फुरसत न थी। विनयसिंह बहुत रात गये सोये थे और अभी तक मीठी नींद के मजे ले रहे थे। कमरे में जल-कणों से भीगी हुई वायु आ रही थी। नरम गलीचा बिछा हुआ था। अभी तक रात का लैंप न बुझा था, मानों विनय की व्यग्रता की साक्षी दे रहा था। सोफी का रूमाल अभी तक विनय के सिरहाने पड़ा हुआ था और उसमें से मनोहर सुगन्ध उड़ रही थी। दारोगा ने जाकर सोफी को सलाम