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रंगभूमि

मुनीम-"गुरू, तुम तो......"

नायकराम-"रुपये लाते हो कि नहीं? यहाँ बातों की फुरसत नहीं। चटपट सोचो। मैं चला। याद रखो, कहीं भीख भी न मिलेगी।"

मुनीम-"तो यहाँ मेरे पास रुपये कहाँ हैं! यह तो सरकारी रकम है।"

नायकराम--"अच्छा, तो हैंडनोट लिख दो।"

मुनीम-"गुरू, जरा इधर देखो, गरीब आदमी हूँ।"

नायकराम-"तुम गरोब हो। बचा, हराम की कौड़ियाँ खाकर मोटे पड़ गये हो, उस पर गरीब बनते हो। लिखो चटपट। कुँवर साहब जरा भी मुरौबत न करेंगे। यों ही मुझे इतने रुपये दिला दिये हैं। बस, मेरे कहने-भर की देर है। गबन का मुकदमा चल जायगा बेटा, समझे? लाओ, बाप की पूजा करो। तुम-जैसे घाघ रोज थोड़े ही फँसते हैं।"

मुनीम ने नायकराम की त्योरियों से भाँप लिया कि यह अब बिना दक्षिणा लिये न छोड़ेगा। चुपके से २५) निकालकर उनके हाथ में रखे और बोला-"पण्डित, अब दया करो, ज्यादा न सताओ।"

नायकराम ने रुपये मुट्ठी में किये और बोले-“ले बचा, अब किसी को न सताना, मैं तुम्हारी टोह में रहूँगा।"

नायकराम चले गये; तो मुनीम ने मन में कहा-“ले जाओ; समझ लेंगे, खैरात किया।"

कुँवर भरतसिंह उस वक्त दीवानखाने के द्वार पर खड़े थे। आज वायु की शीतलता में आनन्द न था। गगन-मंडल में चमकते हुए तारागण व्यंग्य-दृष्टि की भाँति हृदय में चुभते थे। सामने, वृक्षों के कुंज में, विनय की स्मृति-मूर्ति, श्याम, करुण स्वर की भाँति कंपित, धुएँ की भाँति असंबद्ध, यों निकलती हुई मालूम हुई, जैसे किसी सन्तप्त हृदय से हाय की ध्वनि निकलती है। कुँवर साहब कई मिनट तक खड़े रोते रहे। विनय के लिए उनके अन्तःकरण से इस भाँति शुभेच्छाएँ निकल रही थीं, जैसे उषा-काल में बाल-सूर्य की स्निग्ध, मधुर, मन्द, शीतल किरणें निकलती हैं।

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