कन्या और गऊ तो पवित्र हैं। ब्राह्मण के घर आकर और भी पवित्र हो जाती हैं। फिर जिसने दान लिया, संसार-भर का पाप हजम किया, तो फिर औरत की क्या बात है। जिसका ब्याह नहीं हुआ, सरकार, उसकी जिंदगानी दो कौड़ी की।"
कुँवर-"अच्छी बात है, ईश्वर ने चाहा, तो लौटते ही दूल्हा बनोगे। तुमने पहले कभी चर्चा ही नहीं की।"
नायकराम-“सरकार, यह बात आपसे क्या कहता। अपने हेलियों-मेलियों के सिवा और किसी से चर्चा नहीं की। कहते लाज आती है। जो सुनेगा, वह समझेगा, इसमें कोई-न-कोई ऐब जरूर है। कई बार लबारियों की बातों में आकर सैकड़ों रुपये गँवाये। अब किसी से नहीं कह सकता। भगवान के आसरे बैठा हूँ।"
कुँवर-"तो कल किस गाड़ी से जाओगे?"
नायकराम-"हजुर, डाक से चला जाऊँगा।"
कुँअर-"ईश्वर करें, जल्द लौटो। मेरी आँखें तुम्हारी ओर रहेंगी। यह लो, खर्च के लिए लेते जाओ।"
यह कहकर कुँवर साहब ने मुनीम को बुलाकर उसके कान में कुछ कहा। मुनीम ने नायकराम को अपने साथ आने का इशारा किया और अपनी गद्दी पर बैठकर बोला-'बोलो, कितना हमारा, कितना तुम्हारा?"
नायकराम-"क्या यह भी कोई दक्षिणा है?"
मुनीम-"रकम तो तुम्हारे हाथ जाती है?"
नायकराम-"मेरे हाथ नहीं आती, विनयसिंह के पास भेजी जा रही है। बचा, मुसीबत में भी मालिक से नमकहरामी करते हो! उनके ऊपर तो बिपत पड़ी है और तुम्हें अपना घर भरने की धुन है। तुम-जैसै लालचियों को तो ऐसी जगह मारे, जहाँ पानी न मिले।"
मुनीम ने लजित होकर नोटों का एक पुलिंदा नायकराम को दे दिया। नायकराम ने गिनकर नोटों को कमर में बाँधा और मुनीम से बोले-"मेरी कुछ दक्षिणा दिलवाते हो?"
मुनीम-"कैसी दक्षिणा?"
नायकराम-"नगद रुपयों की। नौकरी प्यारी है कि नहीं? जानते हो, यहाँ से निकाल दिये जाओगे, तो कहीं भीख न मिलेगी। अगर भला चाहते हो, तो पचास पय की गड्डी बाँये हाथ से बढ़ा दो, नहीं तो जाकर कुँवर साहब से जड़े देता हूँ। खड़े-खड़े निकाल दिये जाओमे। जानते हो कि नहीं रानीजी को? निकाले भी जाओगे! और गरदन भी नापी जायगी। ऐसी बेभाव की पड़ेगी कि चाँद गंजी हो जायगी।"
मुनीम—"गुरू, अब यारों ही से यह गीदड़ भभकी! इतने रुपये मिल गये, कौन कुँवर विनयसिंह रसीद लिखे देते हैं।"
नायकराम—"रुपये लाते हो कि नहीं, बोलो चटपट।"