सरकार होती और वह बहुमत से यह हुक्म देती, तो दूसरी बात थी। लेकिन जब कि प्रजा ने कभी दरबार से यह इच्छा नहीं की, बल्कि वह विनयसिंह पर जान देती है, तो केवल अधिकारियों की स्वेच्छा हमको उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए बाध्य नहीं कर सकती।"
राजा साहब ने इधर-उधर भीत नेत्रों से देखा कि यहाँ कोई मेरा शत्रु तो नहीं बैठा हुआ है। जॉन सेवक भी त्योरियाँ बदलने लगे।
डॉक्टर गंगुली-"हम दरबार से लड़ तो नहीं सकता।"
प्रभु सेवक-"प्रजा को अपने स्त्रत्व की रक्षा के लिए उत्तेजित तो कर सकते हैं!"
भरतसिंह-"इसका परिणाम विद्रोह के सिवा और क्या हो सकता है, और विद्रोह का दमन करने के लिए दरबार सरकार से सहायता लेगा। हजारों बेकसों का खून हो जायगा।"
प्रभु सेवक-"जब तक हम खून से डरते रहेंगे, हमारे स्वत्ल भी हमारे पास आने से डरते रहेंगे। उनकी रक्षा भी तो खून ही से होगी। राजनीति का क्षेत्र समरक्षेत्र से कम भयावह नहीं है। उसमें उतरकर रक्तपात से डरना कापुरुषता है।"
जॉन सेवक से अब जन्त न हुआ। बोले-"तुम-जैसे भावुक युवकों को ऐसे गहन राजनीतिक विषयों पर कुछ कहने के पहले अपने शब्दों को खूब तौल लेना चाहिए। वह अवसर शांत और शीतल विचार से काम लेने का है।”
प्रभु सेवक ने दबी जबान से कहा; मानों मन में कह रहा है-"शीतल विचार कायरता का दूसरा नाम है।"
डॉक्टर गंगुली-"मेरे विचार में भारतीय सरकार की सेवा में डेपुटेशन जाना चाहिए।"
भरतसिंह-"सरकार कह देगी, हमें दरबार के आंतरिक विषय में दखल देने का अधिकार नहीं।"
महेंद्रकुमार-“दरबार ही के पास क्यों न डेपुटेशन भेजा जाय?"
जॉन सेवक-"हाँ, यही मेरी भी सलाह है। राज्य के विरुद्ध आंदोलन करना राज्य को निर्बल बना देता है और प्रजा को उदंड। राज्य-प्रभुत्व का प्रत्येक दशा में अक्षुण्ण रहना आवश्यक है, अन्यथा उसका फल वही होगा, जो आज साम्यवाद का व्यापक रूप धारण कर रहा है। संसार ने तीन शताब्दियों तक जनवाद की परीक्षा की और अंत में हताश हो गया। आज समस्त संसार जनवाद के आतंक से पीड़ित है। हमारा परम सौभाग्य है कि वह अग्नि-ज्वाला अभी तक देश में नहीं पहुँची, और हमें यत्न करना चाहिए कि उससे भविष्य में भी निश्शंक रहें।"
कुँवर भरतसिंह जनवाद के बड़े पक्षपाती थे। अपने सिद्धांत का खंडन होते देखकर बोले-“फूस का झोपड़ा बनाकर आप अग्नि-ज्वाला से निश्शंक रह ही नहीं सकते। बहुत संभव है कि ज्वाला के बाहर से न आने पर भी घर ही की एक चिनगारी उड़कर
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