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रंगभूमि

नायकराम—"पहले नहीं था, अब हो गया है। अब तो किसी को कुछ समझता ही नहीं।"

ठाकुरदीन—"प्रभुता पाकर सभी को मद हो जाता है, पर सूरे में तो मुझे कोई ऐसी बात नहीं दिखाई देती।"

नायकराम—"छिपा रुस्तम है! बजरंगी, मुझे तुम्हारे ऊपर सक था।"

बजरंगी—(हँसकर) “पण्डाजी, भगवान से कहता हूँ, मुझे तुम्हारे ऊपर सक था।"

भैरो—"और मुझसे जो सच पूछो, तो जगधर पर सक था।"

सूरदास सिर झुकाये चारों ओर के ताने और लताड़ें सुन रहा था। पछता रहा था——"मैंने ऐसे कमीने आदमी से यह बात बताई ही क्यों। मैंने तो समझा था, साफ-साफ कह देने से इसका दिल साफ हो जायगा। उसका यह फल मिला! मेरे मुँह में तो कालिख लग ही गई, उस बेचारी का न जाने क्या हाल होगा। भगवान अब कहाँ गये, क्या कथा-पुरानों ही में अपने सेवकों को उबारने आते थे, अब क्यों नहीं आकास से कोई दूत आकर कहता कि यह अंधा बेकसूर है।"

जब भैरो के द्वार पर यह अभिनय होते हुए आध घंटे से अधिक हो गया, तो सूरदास के धैर्य का प्याला छलक पड़ा। अब मौन बने रहना उसके विचार में कायरता थी, नीचता थी। एक सती पर इतना कलंक थोपा जा रहा है और मैं चुपचाप खड़ा सुनता हूँ। यह महापाप है। वह तनकर खड़ा हो गया, और फटी हुई आँखें फाड़कर बोला-यारो, क्यों बिपत के मारे हुए दुखियों पर यह कीचड़ फेक रहे हो, ये छुरियाँ चला रहे हो? कुछ तो भगवान से डरो। क्या संसार में कहीं इंसाफ नहीं रहा? मैंने तो भलमनसी की कि भैरो के रुपये उसे लौटा दिये। उसका मुझे यह फल मिल रहा है! सुभागी ने क्यों यह काम किया और क्यों मुझे रुपये दिये, यह मैं न बताऊँगा, लेकिन भगवान मेरी इससे भी ज्यादा दुर्गत करें, अगर मैंने सुभागी को अपनी छोटी बहन के सिवा कभी कुछ और समझा हो। मेरा कसूर इतना ही है कि वह रात को मेरी झोपड़ी में आई थी। उस बखत जगधर वहाँ बैठा था। उससे पूछो कि हम लोगों में कौन-सी बातें हो रही थीं। अब इस मुहल्ले में मुझ-जैसे अंधे-अपाहिज आदमी का निबाह नहीं हो सकता। जाता हूँ; पर इतना कहे जाता हूँ कि सुभागो पर जो कलक लगायेगा, उसका भला न होगा। वह सती है, सती को पाप लगाकर कोई सुख की नींद नहीं सो सकता। मेरा कौन कोई रोनेवाला बैठा हुआ है; जिसके द्वार पर खड़ा हो जाऊँगा, वह चुटकी-भर आटा दे देगा। अब यहाँ से दाना-पानी उठता है। पर एक दिन आवेगा, जब तुम लोगों को सब बातें मालूम हो जायेंगी, और तब तुम जानोगे कि अंधा निरपराध था।"

यह कहकर सूरदास अपनी झोपड़ी की तरफ चला गया।