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रंगभूमि


भैरो का हँसना था कि लोगों ने अपने-अपने साज सँभाले, और भजन होने लगा। सूरदास की सुरीली तान आकाश-मण्डल में यों नृत्य करती हुई मालूम होती थी, जैसे प्रकाश-ज्योति जल के अन्तस्तल में नृत्य करती है—

"झीनी-झीनी बीनी चदरिया।
काहे कै ताना, काहे कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया?
इँगला-पिंगला ताना-भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया।
आठ कँवल-दल-चरखा डोले, पाँच तत्त, गुन तीनी चदरिया;
साई को सियत मास दस लागै, ठोक-ठोक के बीनी चदरिया।
सो चादर सुर-नर-मुनि ओ, ओढिकै मैली कीनी चदरिया;
दास कबीर जतन से ओढ़ी ज्यों-की-त्यों धर दीनी चदरिया।"

बातों में रात अधिक जा चुकी थी। ग्यारह का घंटा सुनाई दिया। लोगों ने ढोल-मजीरे समेट दिये। सभा विसर्जित हुई। सूरदास ने मिट्ठू को फिर गोद में उठाया, और अपनी झोपड़ी में लाकर टाट पर सुला दिया। आप ज़मीन पर लेट रहा।