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रंगभूमि

अब तक तो ताहिरअली को कारखाने के बनने की उम्मीद थी। इधर आमदनी बढ़ो, उधर मैंने रुपये दिये; लेकिन जब मि० क्लार्क ने अनिश्चित समय तक के लिए कारखाने का काम बंद करवा दिया, तब ताहिरअली का अपने लेनदारों को समझाना मुश्किल हो गया। लेनदारों ने ज्यादा तग करना शुरू किया। ताहिरअली बहुत चिंतित रहने लगे; बुद्धि कुछ काम न करती थी। कुल्सूम कहती थी-“ऊपर का खर्च सब बंद कर दिया जाय। दूध, पान और मिठाइयों के बिना आदमी को कोई तकलीफ नहीं हो सकती है ऐसे कितने आदमी हैं, जिन्हें इस जमाने में ये चीजें मयस्सर हैं? और की क्या कहूँ, मेरे ही लड़के तरसते हैं। मैं पहले भी समझा चुकी हूँ और अब फिर समझाती हूँ कि जिनके लिए तुम अपना खून और पसीना एक कर रहे हो, वे तुम्हारी बात भी न पूछेगे। पर निकलते ही साफ उड़ न जायँ, तो कहना। अभी से रुख देख रही हूँ। औरों को सूद पर रुपये दिये जाते हैं, जेवर बनवाये जाते हैं; लेकिन घर के खर्च को कभी कुछ माँगो, तो टका-सा जवाब मिलता है, मेरे पास कहाँ! तुम्हारे ऊपर इन्हें कुछ तो रहम आना चाहिए। आज दूध, मिठाइयाँ बंद कर दो, तो घर में रहना मुश्किल हो जाय।"

तीसरा पहर था। ताहिरअली बरामदे में उदास बैठे हुए थे। सहसा भैरो आकर बैठ गया, और बोला-"क्यों मुंशीजी, क्या सचमुच अब यहाँ कारखाना न बनेगा?"

ताहिर—"बनेगा क्यों नहीं, अभी थोड़े दिनों के लिए रुक गया है।"

भैरो-"मुझे तो बड़ी आशा थी कि कारखाना बन गया, तो मेरा बिकरी-बट्टा बढ़ जायगा; दूकान पर बिकरी बिलकुल मंदी है। मैं चाहता हूँ कि यहाँ सवेरे थोड़ी देर बैठा करूँ। आप मंजूर कर लें, तो अच्छा हो। मेरी थोड़ी-बहुत बिकरी हो जायगी। आपको भी पान खाने के लिए कुछ नजर कर दिया करूँगा।"

किसी और समय ताहिर अली ने भैरो को डाँट बताई होती। ताड़ी की दुकान खोलने की आज्ञा देना उनके धर्म-विरुद्ध था। पर इस समय रुपये की चिंता ने उन्हें असमंजस में डाल दिया। इससे पहले भी धनाभाव के कारण उनके कर्म और सिद्धांत में कई बार संग्राम हो चुका था, और प्रत्येक अवसर पर उन्हें सिद्धांतों ही का खून करना पड़ा था। आज वही संग्राम हुआ और फिर सिद्धांतों ने परिस्थितियों के सामने सिर झुका दिया। सोचने लगे-क्या करूँ? इसमें मेरा क्या कसूर? मैं किसी बेजा खर्च के लिए शरा को नहीं तोड़ रहा हूँ, हालत ने मुझे बेबस कर दिया है। कुछ झेपते हुए बोले—“यहाँ ताड़ी की बिकरी न होगी।”

भैरो—“हजूर, बिकरी तो ताड़ी की महक से होगी। नसेबाजों की ऐसी आदत होती है कि न देखें, तो चाहे बरसों न पियें, पर नसा सामने देखकर उनसे नहीं रहा जाता।"

ताहिर—"मगर साहब के हुक्म के बगैर मैं कैसे इजाजत दे सकता हूँ?"

भैरो-"आपकी जैसी मरजी! मेरी समझ में तो साहब से पूछने की जरूरत ही नहीं। मैं कौन यहाँ दूकान रखूँगा। सबेरे एक घड़ा लाऊँगा, घड़ी-भर में बेचकर अपनी राह लूँगा। उन्हें खबर ही न होगी कि यहाँ कोई ताड़ी बेचता है।"