ताहिरअली चले गये, तो भैरो बोला—"दुनिया अपना ही फायदा देखती है। अपना कल्यान हो, दूसरे जियें या मरें। बजरंगी, तुम्हारी तो गायें चरती हैं, इसलिए तुम्हारी भलाई तो इसी में है कि जमीन बनी रहे। मेरी कौन गाय चरती है? कारखाना खुला, तो मेरी बिक्री चौगुनी हो जायगी। यह बात तुम्हारे ध्यान में क्यों नहीं आई? तुम सबकी तरफ से वकालत करनेवाले कौन हो? सूरे की जमीन है, वह बेचे या रखे, तुम कौन होते हो, बीच में कूदनेवाले?"
नायकराम—"हाँ बजरंगी, जब तुमसे कोई वास्ता-सरोकार नहीं, तो तुम कौन होते हो बीच में कूदनेवाले? बोलो, भैरो को जबाब दो।"
बजरंगी—"वास्ता-सरोकार कैसे नहीं? दस गाँवों और मुहल्लों के जानवर यहाँ चरने आते हैं। वे कहाँ जायँगे? साहब के घर कि भैरो के? इन्हें तो अपनी दूकान की हाय-हाय पड़ी हुई है। किसी के घर सेंद क्यों नहीं मारते? जल्दी से धनवान हो जाओगे।"
भैरो—"सेंद मारो तुम, यहाँ दूध में पानी नहीं मिलाते।”
दयागिरि—"भैरो, तुम सचमुच बड़े झगड़ालू हो। जब तुम्हें प्रिय बचन बोलना नहीं आता, तो चुप क्यों नहीं रहते? बहुत बातें करना बुद्धिमानी का लक्षण नहीं, मूर्खता का लक्षण है।"
भैरो—"ठाकुरजी के भोग के बहाने से रोज छाछ पा जाते हो न? बजरङ्गी की जय क्यों न मनाओगे?"
नायकराम—“पठ्ठा बात बेलाग कहता है कि एक बार सुनकर फिर किसी की जबान नहीं जुलती।"
ठाकुरदीन—"अब भजन-भाव हो चुका। ढोल-मजीरा उठाकर रख दो।"
दयागिरि—“तुम कल से यहाँ न आया करो, भैरो!”
भैरो—"क्यों न आया करें? मन्दिर तुम्हारा बनवाया नहीं है। मन्दिर भगवान् का है, तुम किसी को भगवान् के दरबार में आने से रोक दोगे?"
नायकराम—"लो बाबाजी, और लोगे, अभी पेट भरा कि नहीं?
"जगधर—"बाबाजी, तुम्हीं गम खा जाओ, इससे साधू-सन्तों की महिमा नहीं घटती। भैरो, साधू-सन्तों की बात का तुम्हें बुरा न मानना चाहिए।"
भैरो—"तुम खुशामद करो, क्योंकि खुशामद की रोटियाँ खाते हो। यहाँ किसी के दबैल नहीं हैं।"
बजरंगी—"ले अब चुप ही रहना— भैरो, बहुत हो चुका। छोटा मुँह, बड़ी बात।"
नायकराम—"तो भैरो को धमकाते क्या हो? क्या कोई भगोड़ा समझ लिया है? तुमने जब दंगल मारे थे, तब मारे थे, अब तुम वह नहीं हो। आजकल भैरो की दुहाई है।"
भैरो नायकराम के व्यंग्य-हास्य पर झल्लाया नहीं, हँस पड़ा। व्यंग्य में विष नहीं था, रस था। संखिया मरकर रस हो जाती है।