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रंगभूमि

सोफ़ी—"यह तुम्हारा अन्याय है। उनमें और चाहे कोई गुण न हो, पर प्रभु मसीह पर उनका दृढ़ विश्वास है। चलो, कहीं सैर करने चलते हो?”

प्रभु सेवक—"कहाँ चलोगी? चलो, यहीं हौज के किनारे बैठकर कुछ काव्य-चर्चा करें। मुझे तो इससे ज्यादा आनंद और किसी बात में नहीं मिलता।”

सोफ़ी—"चलो, पाँडेपुर की तरफ चलें। कहीं सूरदास मिल गया, तो उसे यह खबर सुनायेंगे।"

प्रभु सेवक—"फूला न समायेगा, उछल पड़ेगा।”

सोफ़ी—"जरा शह पा जाय, तो इस राजा को शहर से भगाकर ही छोड़े।"

दोनों ने सड़क पर आकर एक ताँगा किराये पर किया और पाँडेपुर चले। सूर्यास्त हो चुका था। कचहरी के अमले बगल में बस्ते दबाये, भीरुता और स्वार्थ की मूर्ति बने चले आते थे। बँगलों में टेनिस हो रहा था। शहर के शोहदे दीन-दुनिया से बेखबर पानवालों की दुकानों पर जमा थे। बनियों की दुकानों पर मजदूरों की स्त्रियाँ भोजन की सामग्रियाँ ले रही थीं। ताँगा बरना नदी के पुल पर पहुँचा था कि अकस्मात् आदमियों की एक भीड़ दिखाई दी। सूरदास खँजरी बजाकर गा रहा था, सोफ़ी ने ताँगा रोक दिया और ताँगेवाले से कहा-"जाकर उस अंधे को बुला ला।"

एक क्षण में सूरदास लाठी टेकता हुआ आया और सिर झुकाकर खड़ा हो गया।

सोफी—"मुझे पहचानते हो सूरदास?"

सूरदास—"हाँ, भला हुजूर ही को न पहचानूँगा!”

सोफी—"तुमने तो हमलोगों को सारे शहर में खूब बदनाम किया।"

सूरदास—“फरियाद करने के सिवा मेरे पास और कौन बल था?”

सोफी—“फरियाद का क्या नतीजा निकला?"

सूरदास—"मेरी मनोकामना पूरी हो गई। हाकिमों ने मेरी जमीन मुझे दे दी। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि कोई काम तन-मन से किया जाय, और उसका कुछ फल न निकले। तपस्या से तो भगवान् मिल जाते हैं। बड़े साहब के अरदली ने कल रात ही को मुझे यह हाल सुनाया। आज पाँच ब्राह्मणों को भोजन कराना है। कल घर चला जाऊँगा।"

प्रभु सेवक—"मिस साहब ही ने बड़े साहब से कह-सुनकर तुम्हारी जमीन दिलवाई है, इनके पिता और राजा साहब दोनों ही इनसे नाराज हो गये हैं। इनकी तुम्हारे ऊपर बड़ी दया है।"

सोफी—"प्रभु, तुम बड़े पेट के हलके हो। यह कहने से क्या फायदा कि मिस साहब ने जमीन दिलवाई है। यह तो कोई बहुत बड़ा काम नहीं है।"

सूरदास—“साहब, यह तो मैं उसी दिन जान गया था, जब मिस साहब से पहले-पहले बातें हुई थीं। मुझे उसी दिन मालूम हो गया था कि इनके चित्त में दया और धरम है। इसका फल भगवान् इनको देंगे।"