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रंगभूमि


है, उनके सुधार का एकमात्र साधन है, जनता की निगाहों में गिर जाने का भय ही उन्हें सन्मार्ग पर ला सकता है। उपहास का भय न हो, तो वे शेर हो जायँ, अपने सामने किसी को कुछ न समझें।”

प्रभु सेवक मीठी नींद सो रहे थे। आधी रात बीत चुकी थी। सहसा सोफिया ने आकर जगाया, चौंककर उठ बैठे और यह समझकर कि शायद इसके कमरे में चोर घुस आये हैं, द्वार की ओर दौड़े। गोदाम की घटना आँखों के सामने फिर गई। सोफी ने हँसते हुए उनका हाथ पकड़ लिया और पूछा-'कहाँ भागे जाते हो?”

प्रभु सेवक-"क्या चोर हैं? लालटेन जला लूँ?"

सोफिया-"चोर नहीं हैं, जरा मेरे कमरे में चलो, तुम्हें एक चीज सुनाऊँ। अभी लिखी है।"

प्रभु सेवक-"वाह-वाह! इतनी-सी बात के लिए नींद खराब कर दी। क्या फिर सवेरा न होता, क्या लिखा है?"

सोफिया-"एक प्रहसन है।"

प्रभु सेवक-"प्रहसन! कैसा प्रहसन? तुमने प्रहसन लिखने का कब से अभ्यास किया?”

सोफिया-"आज ही। बहुत जब्त किया कि सबेरे सुनाऊँगी; पर न रहा गया।"

प्रभु सेवक सोफिया के कमरे में आये और एक ही क्षण में दोनों ने ठठे मार-मारकर हँसना शुरू किया। लिखते समय सोफिया को जिन वाक्यों पर जरा भी हँसी न आई थी, उन्हीं को पढ़ते समय उससे हँसी रोके न रुकती थी। जब कोई हँसनेवाली बात आ जाती, तो सोफी पहले ही से हँस पड़ती, प्रभु सेवक मुँह खोले हुए उसकी ओर तकता, बात कुछ समझ में न आती, मगर उसकी हँसी पर हँसता, और ज्यों ही बात समझ में आ जाती, हास्य-ध्वनि और भी प्रचंड हो जाती। दोनों के मुख आरक्त हो गये, आँखों से पानी बहने लगा, पेट में बल पड़ गये, यहाँ तक कि जबड़ों में दर्द होने लगा। प्रहसन के समाप्त होते-होते ठठे की जगह खाँसी ने ले ली। खैरियत थी कि दोनों तरफ से द्वार बंद थे, नहीं तो उस नि:स्तब्धता में सारा बँगला हिल जाता।

प्रभु सेवक-"नाम भी खूब रखा, राजा मुजेंद्रसिंह। महेंद्र और मुछेद्र की तुक मिलती है! पिलपिली साहब के हंटर खाकर मुछेद्रसिंह का झुक-झुककर सलाम करना खूब रहा। कहीं राजा साहब जहर न खा लें।"

सोफिया-“ऐसा हयादार नहीं है।"

प्रभु सेवक-"तुम प्रहसन लिखने में निपुण हो।"

थोड़ी देर में दोनों अपने-अपने कमरों में सोये। सोफिया प्रातःकाल उठी और मि० क्लार्क का इन्तजार करने लगी। उसे विश्वास था कि वह आते ही होंगे, उनसे सारी बातें स्पष्ट रूप से मालूम होंगी, अभी तो केवल अफवाह सुनी है। संभव है, राजा साहब घबराये हुए उनके पास अपना दुखड़ा रोने के लिए आये हों, लेकिन आठ