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रंगभूमि


इन्दु अँगीठी की आग उकसाने लगी। सोफिया की ओर आँख उठाकर भी न देखा।

सोफिया यहाँ से चली, तो इन्दु के दुर्व्यवहार से उसका कोमल हृदय विदीर्ण हो रहा था। सोचती जाती थी-वह हँसमुख, प्रसन्न-चित्त, विनोद-शील इन्दु कहाँ है? क्या ऐश्वर्य मानव-प्रकृति को भी दूषित कर देता है? मैंने तो आज तक कभी इसका दिल दुखानेवाली बात नहीं कही। क्या मैं ही कुछ और हो गई हूँ, या वही कुछ ओर हो गई है? इसने मुझसे सीधे मुँह बात भी नहीं की। बात करना तो दूर, उलटे और गालियाँ सुनाई। मैं इस पर कितना विश्वास करती थी। समझती थी, देवी है। आज इसका यथार्थ स्वरूप दिखाई पड़ा। लेकिन मैं इसके ऐश्वर्य के सामने क्यों सिर झुकाऊँ? इसने अकारण, निष्प्रयोजन ही, मेरा अपमान किया। शायद रानीजी ने इसके कान भरे हो। लेकिन सजनता भी कोई चीज है।

सोफिया ने उसी क्षण इस अपमान का पूरा, बल्कि पूरे से भी ज्यादा बदला लेने का निश्चय कर लिया। उसने यह विचार न किया-संभव है, इस समय किसी कारण इसका मन खिन्न रहा हो, अथवा किसी दुर्घटना ने इसे असमंजस में डाल रखा हो। उसने तो सोचा-ऐसी अभद्रता, ऐसी दुर्जनता के लिए दारुण-से-दारुण मानसिक कष्ट, बड़ी-से-बड़ी आर्थिक क्षति, तीव्र-से-तीव्र शारीरिक व्यथा का उज्र भी काफी नहीं। इसने मुझे चुनौती दी है, स्वीकार करती हूँ। इसे अपनी रियासत का घमण्ड है, मैं दिखा दूँगी कि यह सूर्य का स्वयं प्रकाश नहीं, चाँद की पराधीन ज्योति है। इसे मालूम हो जायगा कि राजा और रईस, सब-के-सब शासनाधिकारियों के हाथों के खिलौने हैं, जिन्हें वे अपनी इच्छा के अनुसार बनाते-बिगाड़ते रहते हैं।

दुसरे ही दिन से सोफिया ने अपनी कपट-लीला आरम्भ कर दी। मि० क्लार्क से उसका प्रेम बढ़ने लगा। द्वेष के हाथों की कठपुतली बन गई। अब उनकी प्रेम-मधुर बातें सिर झुकाकर सुनती, उमकी गरदन में बाहें डालकर कहती—"तुमने प्रेम करना किससे सीखा?” दोनों अब निरन्तर साथ नजर आते, सोफिया दफ्तर में भी साहब का गला न छोड़ती, बार-बार चिट्ठियाँ लिखती-"जल्द आओ, मैं तुम्हारी बाट जोह रही हूँ।" और यह सारा प्रमाभिनय केवल इसलिए था कि इन्दु से अपमान का बदला लूँ। न्याय-रक्षा का अब उसे लेश-मात्र ध्यान न था, केवल इन्दु का दर्प-मर्दन करना चाहती थी।

एक दिन वह मि० क्लार्क को पाँड़ेपुर की तरफ सैर कराने ले गई। जब मोटर गोदाम के सामने से होकर गुजरी, तो उसने ईंट और कंकड़ के ढेरों की ओर संकेत करके कहा—“पापा बड़ी तत्परता से काम कर रहे हैं।"

क्लार्क-"हाँ, मुस्तैद आदमी हैं। मुझे तो उनकी श्रमशीलता पर डाह होती है।"

सोफी--"पापा ने धर्म-अधर्म का विचार नहीं किया। कोई माने या न माने, मैं तो, यही कहूँगी कि अन्धे के साथ अन्याय हुआ।”

क्लार्क--"हाँ, अन्याय तो हुआ। मेरी तो बिलकुल इच्छा न थी।"