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रंगभूमि


होता, तो शायद सबसे पहले तुम्ही उन पर कृतघ्नता का दोषारोपण करतीं। सूरदास पर यह अन्याय इसलिए किया गया कि तुमने एक संकट में विनय की रक्षा की है, और तुम अपने पिता की बेटी हो।"

सोफिया ये कठोर शब्द सुनकर तिलमिला गई। बोली-“अगर मैं जानती कि मेरी उस क्षुद्र सेवा का यों प्रतिकार किया जायगा, तो शायद विनयसिंह के समीप न जाती। क्षमा कीजिए, मुझसे भूल हुई कि आपके पास यह शिकायत लेकर आई। सुना करती थी, अमीरों में स्थिरता नहीं होती। आज उसका प्रमाण मिल गया। लीजिए, जाती हूँ। मगर इतना कहे जाती हूँ कि चाहे पापा मेरा मुँह देखना भी पाप समझें, पर मैं इस विषय में कदापि चुप न बैठूँगी।"

इन्दु कुछ नरम होकर बोली—“आखिर तुम राजा साहब से क्या चाहती हो?"

"क्या ऐश्वर्य पाकर बुद्धि भी मंद हो जाती है?"

“मैं प्यादे से वजीर नहीं बनी हूँ।"

"खेद है, आपने अब तक मेरा आशय नहीं समझा।"

"खेद करने से तो बात मेरी समझ में न आयेगी।"

“मैं चाहती हूँ कि सूरदास की जमीन उसे लौटा दी जाय।"

"तुम्हें मालूम है, इसमें राजा साहब का कितना अपमान होगा?"

"अपमान अन्याय से अच्छा है।"

"यह भी जानती हो कि जो कुछ हुआ, तुम्हारे......मि. क्लार्क की प्रेरणा से

"यह तो नहीं जानती; क्योंकि इस विषय में मेरी उनसे कभी बातचीत नहीं हुई। लेकिन जानती भी, तो राजा साहब की मान-हानि के विचार से पहले राजा साहब ही से अनुनय-विनय करना उचित समझती। अपनी भूल अपने ही हाथों सुधर जाय, तो यह उससे कहीं अच्छा है कि कोई दूसरा उसे सुधारे।"

इन्दु को चोट लगी। समझा, यह मुझे धमकी दे रही है। मि० क्लार्क के अधिकार पर इतना अभिमान! तनकर बोली— "मैं नहीं समझती कि किसी राज्याधिकारी को बोर्ड के फैसले में भी दखल देने का मजाज है, और चाहे एक दीन अंधे पर अत्याचार ही क्यों न करना पड़े, राजा साहब अपने फैसले को बहाल रखने के लिए कोई बात उठा न रखेंगे। एक राजा का सम्मान एक क्षुद्र न्याय से कहीं ज्यादा महत्व की वस्तु है।"

सोफिया ने व्यथित होकर कहा—"इसी क्षुद्र न्याय के लिए सत्यवादी पुरुषों ने सिर कटवा दिये हैं।"

इन्दु ने कुर्सी की बाँह पर हाथ पटककर कहा—"न्याय का स्वाँग भरने का युग अब नहीं रहा।”

सोफिया ने कुछ उत्तर न दिया। उठ खड़ी हुई और बोली—"इस कष्ट के लिए क्षमा कीजिएगा।"