पाँच सवार भाले उठाये, घोड़े बढ़ाये चले आते थे। उसके होश उड़ गये, काटो, तो बदन में लहू नहीं। बोला-"लीजिए, सब आ ही पहुँचे। इन सबों के मारे इधर रास्ता चलना कठिन हो गया है। बड़े हत्यारे हैं। सरकारी नौकरों को तो छोड़ना ही नहीं जानते। अब आप ही बचायें, तो मेरी जान बच सकती है।”
इतने में पाँचो सवार सिर पर आ पहुँचे। उनमें से एक ने पुकारा-"अबे, ओ डाकिये, इधर आ, तेरे थैले में क्या है?”
विनयसिंह जमीन पर बैठे हुए थे। लकड़ी टेककर उठे कि इतने में एक सवार ने डाकिये पर भाले का वार किया। डाकिया सेना में रह चुका था। वार को थैले पर रोका। भाला थैले के वार-पार हो गया। वह दूसरा वार करनेवाला ही था कि विनय सामने आकर बोले-"भाइयो, यह क्या अंधेर करते हो! क्या थोड़े-से रुपयों के लिए एक गरीब की जान ले लोगे?"
सवार-“जान इतनी प्यारी है, तो रुपये क्यों नहीं देता?"
विनय-"जान भी प्यारी है और रुपये भी प्यारे हैं। दो में से एक भी नहीं दे सकता।"
सवार-"तो दोनों ही देने पड़ेगे।"
विनय-"तो पहले मेरा काम तमाम कर दो। जब तक मैं हूँ, तुम्हारा मनोरथ न पूरा होगा।"
सवार-"हम साधु-संतों पर हाथ नहीं उठाते। सामने से हट जाओ।"
विनय-"जब तक मेरी हड्डियाँ तुम्हारे घोड़ों के पैरों-तले न रौंदी जायँगी, मैं सामने से न हटूँगा।"
सवार- "हम कहते हैं, सामने से हट जाओ। क्यों हमारे सिर हत्या का पाप लगाते हो?”
विनय-"मेरा जो धर्म है, वह मैं करता हूँ; तुम्हारा जो धर्म हो, वह तुम करो। गरदन झुकाये हुए हूँ।"
दूसरा सवार-"तुम कौन हो?"
तीसरा सवार-"बेधा हुआ है, मार दो एक हाथ, गिर पड़े, प्रायश्चित्त कर लेंगे।"
पहला सवार—"आखिर तुम हो कौन?"
विनय—"मैं कोई हूँ, तुम्हें इससे मतलब?"
दूसरा सवार—“तुम तो इधर के रहनेवाले नहीं जान पड़ते। क्यों बे डाकिये, यह कौन हैं?"
डाकिया—"यह तो नहीं जानता, पर इनका नाम है विनयसिंह। धर्मात्मा और परोपकारी आदमी हैं। कई महीनों से इस इलाके में ठहरे हुए हैं।"
विनय का नाम सुनते ही पाँचों सवार घोड़ों से कूद पड़े और विनय के सामने हाथ बाँधकर सड़े हो गये। सरदार ने कहा-"महाराज, हमारा अपराध क्षमा कीजिए।