[१६]
अरावली की पहाड़ियों में एक वट-वृक्ष के नीचे विनयसिंह बैठे हुए हैं। पावस ने उस जन-शून्य, कठोर, निष्प्रभ, पाषाणमय स्थान को प्रेम, प्रमोद और शोभा से मंडित कर दिया है, मानों कोई उजड़ा हुआ घर आबाद हो गया हो। किंतु विनय की दृष्टि इस प्राकृतिक सौंदर्य की ओर नहीं; वह चिंता की उस दशा में हैं, जब आँखें खुली रहती हैं और कुछ नहीं सूझता, कान खुले रहते हैं और कुछ सुनाई नहीं देता; बाह्य चेतना शून्य हो गई है। उनका मुख निस्तेज हो गया है, शरीर इतना दुर्बल कि पसलियों की एक-एक हड्डी गिनी जा सकती है।
हमारी अभिलाषाएँ ही जीवन का स्रोत हैं; उन्हों पर तुषार-पात हो जाय, तो जीवन का प्रवाह क्यों न शिथिल हो जाय।
उनके अंतस्तल में निरंतर भीषण संग्राम होता रहता है। सेवा-मार्ग उनका ध्येय था। प्रेम के काँटे उसमें बाधक हो रहे थे। उन्हें अपने मार्ग से हटाने के लिए वह सदैव यत्न करते रहते हैं। कभी-कभी वह आत्मग्लानि से विकल होकर सोचते हैं, सोफी ने मुझे उस अग्नि-कुंड से निकाला ही क्यों। बाहर की आग केवल देह का नाश करती है, जो स्वयं नश्वर है, भीतर की आग अनंत आत्मा का सर्वनाश कर देती है।
विनय को यहाँ आये कई महीने हो गये; पर उनके चित्त की अशांति समय के साथ बढ़ती ही जाती है। वह आने को तो यहाँ लज्जा-वश आ गये थे; पर एक-एक घड़ी एक-एक युग के समान बीत रही है। पहले उन्होंने यहाँ के कष्टों को खूब बढ़ा-बढ़ाकर अपनी माता को पत्र लिखे। उन्हें विश्वास था कि अम्माजी मुझे बुला लेंगी। पर वह मनोरथ पूरा न हुआ। इतने ही में सोफिया का पत्र मिल गया, जिसने उनके धैर्य के टिमटिमाते हुए दीपक को बुझा दिया। अब उनके चारों ओर अँधेरा था। वह इस अँधेरे में चारों ओर टटोलते फिरते थे और कहीं राह न पाते थे। अब उनके जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है। कोई निश्चित मार्ग नहीं है, माँझी की नाव है, जिसे एकमात्र तरंगों की दया का ही भरोसा है।
किंतु इस चिंता और ग्लानि की दशा में भी वह यथासाध्य अपने कर्तव्य का पालन करते जाते हैं। जसवंतनगर के प्रांत में एक बच्चा भी नहीं है, जो उन्हें न पहचानता हो। देहात के लोग उनके इतने भक्त हो गये हैं कि ज्यों हा वह किसी गाँव में जा पहुँचते हैं, सारा गाँव उनके दर्शनों के लिए एकत्र हो जाता है। उन्होंने उन्हें अपनी मदद आप करना सिखाया है। इस प्रांत के लोग अब वन्य जंतुओं को भगाने के लिए पुलिस के यहाँ नहीं दौड़े जाते, स्वयं संगठित होकर उन्हें भगाते हैं; जरा-जरा-सी बात पर अदालतों के द्वार नहीं खटखटाने जाते, पंचायतों में समझौता कर लेते हैं; जहाँ कभी कुएँ न थे, वहाँ अब पक्के कुएँ तैयार हो गये हैं; सफाई की ओर भी लोग ध्यान देने लगे