शिकायत लिख भेजे। पर इस समय इनसे तक करना व्यर्थ है। इनके होश-हवास ठिकाने नहीं हैं। बोली—“अगर आप समझते हैं कि क्लार्क की अप्रसन्नता आपके लिए दुस्सह है, तो जिस बात से वह प्रसन्न हो, वही कीजिए। मैं वादा करती हूँ कि आपके बीच में मुँह न खोलूँगी। जाइए, साहब को देर हो रही होगी, कहीं इसी बात पर न नाराज हो जायँ!"
राजा साहब इस व्यंग्य से दिल में ऐंठकर रह गये। नन्हा-सा मुँह निकल आया। चुपके से उठे और चले गये; वैसे ही, जैसे कोई गरज का बावला असामी महाजन के इनकार से निराश होकर उठे। इंदु के आश्वासन से उन्हें संतोष न हुआ। सोचने लगे-मैं इसकी नजरों में गिर गया। बदनामी से इतना डरता था; पर घर ही में मुँह दिखाने लायक न रहा।
राजा साहब के जाते ही इंदु ने एक लंबी साँस ली और फर्श पर लेट गई। उसके मुँह से सहसा ये शब्द निकले—“इनका हृदय से कैसे सम्मान करूँ? इन्हें अपना उपा-स्यदेव कैसे समझू? नहीं जानती, इस अभक्ति के लिए क्या दंड मिलेगा। मैं अपने पति की पूजा करनी चाहती हूँ; पर दिल पर मेरा काबू नहीं! भगवन्! तुम मुझे इस कठिन परीक्षा में क्यों डाल रहे हो?”