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राजा महेंद्रकुमारसिंह यद्यपि सिद्धांत के विषय में अधिकारियों से जौ-भर भी न दबते थे; पर गौण विषयों में वह अनायास उनसे विरोध करना व्यर्थ ही नहीं, जाति के लिए अनुपयुक्तं भी समझते थे। उन्हें शांत नीति पर जितना विश्वास था, उतना उग्र नीति पर न था, विशेषतः इसलिए कि वह वर्तमान परिस्थिति में जो कुछ सेवा कर सकते थे, वह शासकों के विश्वास-पात्र होकर ही कर सकते थे। अतएव कभी-कभी उन्हें विवश होकर ऐसी नीति का अवलंबन करना पड़ता था, जिससे उग्र नीति के अनुयायियों को उन पर उँगली उठाने का अवसर मिलता था। उनमें यदि कोई कमजोरी थी, तो यह कि वह सम्मान-लोलुप मनुष्य थे; और ऐसे अन्य मनुष्यों को भाँति वह बहुधा औचित्य की दृष्टि से नहीं, ख्यातिलाभ की दृष्टि से अपने आचरण का निश्चय करते थे। पहले उन्होंने न्याय-पक्ष लेकर जॉन सेवक को सूरदास का जमीन दिलाने से इनकार कर दिया था; पर अब उन्हें इसके विरुद्ध आचरण करने के लिए बाध्य होना पड़ रहा था। अपने सहवर्गियों को समझाने के लिए तो पाँड़ेपुरवालों का ताहिरअली के घर में घुसने पर उद्यत होना ही काफी था। पर यथार्थ में जॉन सेवक और मिस्टर ब्लार्क की पारस्परिक मैत्री ने ही उन्हें अपना फैसला पलट देने को प्रेरित किया था। पर अभी तक उन्होंने बोर्ड में इस प्रस्ताव को उपस्थित न किया था। यह शंका होती थी कि कहीं लोग मुझे एक धनी व्यारारी के साथ पक्षपात करने का दोषी न ठहराने लगे। उनकी आदत थी कि बोर्ड में कोई प्रस्ताव रखने के पहले वह इंदु से, और इंदु न होती, तो अपने किसी इष्ट-मित्रों से परामर्श कर लिया करते थे; उनके सामने अपना पक्ष-समर्थन करके, उनका शंकाओं का समाधान करने का प्रयास करके, अपना इतमीनान कर लेते थे। यद्यपि निश्चय में इस तर्क-युद्ध से कोई अन्तर न पड़ता, वह अपने पक्ष पर स्थिर रहते; पर घंटे-दो घंटे के विचार-विनिमय से उनको बड़ा आश्वासन मिलता था।
तासरे पहर का समय था। समिति के सेवक गढ़वाल जाने के लिए स्टेशन पर जमा हो रहे थे। इंदु ने गाड़ी तैयार करने का हुक्म दिया। यद्यपि बादल घिरा हुआ था और प्रतिक्षण गगन श्याम-वर्ण हुआ जाता था, किंतु सेवकों को बिदा करने के लिए स्टेशन पर जाना जरूरी था। जाह्नवी ने उसे बहुत आग्रह करके बुलाया था। वह जाने को तैयार ही थी कि राजा साहब अंदर आये और इंदु को कहीं जाने को तैयार देखकर बोले-“कहाँ जाती हो, बादल घिरा हुआ है।"
इंदु—"समिति के लोग गढ़वाल जा रहे हैं। उन्हें बिदा करने स्टेशन जा रही हूँ। अम्माँजी ने बुलाया भी है।"
राजा—"पानी अवश्य बरसेगा।"
इंदु—“परदा डाल दूँगी और भीग भी गई, तो क्या? आखिर वे भी तो आदमी ही है, जो लोक-सेवा के लिए इतनी दूर जा रहे हैं।"