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रंगभूमि


लिखा है? सहसा उसे ध्यान आया कि कहीं मेरा पत्र उपदेश के रूप में न हो जाय। वह इसे पढ़कर शायद मुझसे चिढ़ जायें। अपने प्रेमियों से हम उपदेश और शिक्षा की बातें नहीं, प्रेम और परितोप की बातें सुनना चाहते हैं। बड़ी कुशल हुई, नहीं तो वह मेरा उपदेश-पत्र पढ़कर न जाने दिल में क्या समझते। उन्हें खयाल होता, गिरजा में उपदेश सुनते-सुनते इसकी प्रेम-भावनाएँ निर्जीव हो गई हैं। अगर वह मुझे ऐसा पत्र लिखते, तो मुझे कितना बुरा मालूम होता! आह! मैंने बड़ा धोखा खाया। पहले मैंने समझा था, उनसे केवल आध्यात्मिक प्रेम करूँगी। अब विदित हो रहा है कि आध्यात्मिक प्रेम या भक्ति केवल धर्म-जगत् ही की वस्तु है। स्त्री और पुरुष में पवित्र प्रेम होना असंभव है। प्रेम पहले उँगली पकड़कर तुरंत ही पहुँचा पकड़ता है। यह भी जानती हूँ कि यह प्रेम मुझे ज्ञान के ऊँचे आदर्श से गिरा रहा है। हमें जीवन इसलिए प्रदान किया गया है कि सद्विचारों और सत्कार्यों से उसे उन्नत करें और एक दिन अनन्त ज्योति में विलीन हो जायँ। यह भी जानती हूँ कि जीवन नश्वर है, अनित्य है और संसार के सुख भी अनित्य और नश्वर हैं। यह सब जानते हुए भी पतंग की भाँति दीपक पर गिर रही हूँ। इसीलिए तो कि प्रेम में वह विस्मृति हैं, जो संयम, ज्ञान और धारणा पर परदा डाल देती है। भक्तजन भी, जो आध्यात्मिक आनन्द भोगते रहते हैं, वासनाओं से मुक्त नहीं हो सकते। जिसे कोई बलात् खींचे लिये जाता हो, उससे कहना कि तू मत जा, कितना बड़ा अन्याय है!

पीड़ित प्राणियों के लिए रात एक कठिन तपस्या है। ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी, सोफी की उद्विग्नता बढ़ती जाती थी। आधी रात तक मनो-भावों से निरंतर संग्राम करने के बाद अंत को उसने विवश होकर हृदय के द्वार प्रेम-क्रीड़ाओं के लिए उन्मुक्त कर दिये, जैसे किसी रंगशाला का व्यवस्थापक दर्शकों की रेट-पेल से तंग आकर शाला का पट सर्व साधारण के लिए खोल देता है। बाहर का शेर भीतर के मधुर स्वर-प्रवाह में बाधक होता है। सोफी ने अपने को प्रेम-कल्पनाओं की गोद में डाल दिया। अबाध रूप से उनका आनन्द उठाने लगी-

"क्यों विनय, तुम मेरे लिए क्या-क्या मुसीबत झेलोगे? अपमान, अनादर, द्वेष, माता-पिता का विरोध, तुम मेरे लिए यह सब विपत्ति सह लोगे? लेकिन धम? वह देखो, तुम्हारा मुख उदास हो गया। तुम सब कुछ करोगे; पर धर्म नहीं छोड़ सकते। मेरी भी यही दशा है। मैं तुम्हारे साथ उपवास कर सकती हूँ; तिरस्कार, अपमान, निंदा, सब कुछ भोग सकती हूँ, पर धर्म को कैसे त्याग दूँ? ईसा का दामन कैसे छोड़ दूँ? ईमा- इयत की मुझे परवा नहीं, यह केवल स्वार्थो का रघटन है। लेकिन उस पवित्र आत्मा से क्योंकर मुँह मोड़ें, जो क्षमा और दया का अवतार थी? क्या यह संभव नहीं कि मैं ईसा के दामन से लिपटी रहकर भी अपनी प्रेमाकांक्षाओं को तृप्त करूँ? हिंदू-धर्म की उदार छाया में किसके लिए शरण नहीं? आस्तिक भी हिंदू है, नास्तिक भी हिंदू है, ३३ करोड़ देवतों को माननेवाला भी हिंदू है। जहाँ महावीर के भक्तों के लिए स्थान है,