पत्र है? यह तो विनय की लिखावट जान पड़ती है। तुम्हारे नाम आया है न? तुमने लफाफा खोला नहीं!"
सोफिया-"जी नहीं।"
रानी ने प्रसन्न होकर कहा-"मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ, पढ़ो। तुमने अपना वचन पालन किया, इससे मैं बहुत खुश हुई।"
सोफिया-"मुझे क्षमा कीजिए।"
रानी-'मैं खुशी से कहती हूँ, पढ़ो; देखो, क्या लिखते हैं?"
सोफिया-“जी नहीं।"
रानी ने पत्र ज्यों-का-त्यों संदूक में बंद कर दिया। खुद भी नहीं पढ़ा। कारण, यह नीति-विरुद्व था। तब सोफिया से बोलीं-"बेटी, अब मेरी तुमसे एक और याचना है। विनय को एक पत्र लिखो और उसमें स्पष्ट लिख दो, हमारा और तुम्हारा कल्याण इमी में है कि हममें केवल भाई और बहन का सम्बन्ध रहे। तुम्हारे पत्र से यह प्रकट होना चाहिए कि तुम उनके प्रेम की अपेक्षा उनके जातीय भावों की ज्यादा कद्र करती हो। तुम्हारा यह पत्र मेरे और उनके पिता के हजारों उपदेशों से अधिक प्रभावशाली होगा। मुझे विश्वास है, तुम्हारा पत्र पाते ही उनकी चेष्टाएँ बदल जायँगी और वह कर्तव्य-मार्ग पर सुदृढ़ हो जायँगे। मैं इस कृपा के लिए जीवन-पर्यन्त तुम्हारी आभारी रहूँगी।"
सोफी ने कातर स्वर में कहा-"आपकी आज्ञा पालन करूँगी।"
रानी-'नहीं, केवल मेरी आज्ञा का पालन करना काफी नहीं है। अगर उससे यह भासित हुआ कि किसी की प्रेरणा से लिखा गया है, तो उसका असर जाता रहेगा।"
सोफिया-"आपको पत्र लिखकर दिखा दूँ?"
रानी-"नहीं, तुम्हीं भेज देना।"
सोफिया जब वहाँ से आकर पत्र लिखने बैठी, तो उसे सूझता ही न था कि क्या लिखूँ। सोचने लगी-“वह मुझे निर्मम समझेंगे; अगर लिख दूँ, मैंने तुम्हारा पत्र पढ़ा ही नहीं, तो उन्हें कितना दुःख होगा! कैसे कहूँ कि मैं तुमसे प्रेम नहीं करती"वह मेज पर से उठ खड़ी हुई और निश्चय किया, कल लिखू गी। एक किताब पढ़ने लगी। भोजन का समय हो गया। नौ बज गये। अभी वह मुँह-हाथ धोकर बैठी ही थी कि उसने रानी को द्वार से अन्दर की ओर झाँकते देखा। समझी, किसी काम से जा रही होंगी, फिर किताब देखने लगी। पंद्रह मिनट भी न गुजरे थे कि रानी फिर दूसरी तरफ से लौटीं और कमरे में झाँका।
सोफी को उनका यों मँडलाना बहुत नागवार मालूम हुआ। उसने समझा-यह मुझे बिलकुल काठ की पुतली बनाना चाहती हैं। बस, इनके इशारों पर नाचा करूँ। इतना तो नहीं हो सका कि जब मैंने बंद लिफाफा उनके हाथ में रख दिया, तो मुझे खत पढ़कर सुना देतीं। आखिर मैं लिखू क्या? नहीं मालूम, उन्होंने अपने खत में क्या