चखा है? उसमें संतोष की मिठास थी, जिससे मीठी संसार में कोई वस्तु नहीं। हाँडी को चूल्हे पर चढ़ाकर वह घर से निकला, द्वार पर टट्टी लगाई, और सड़क पर जाकर एक बनिये की दूकान से थोड़ा-सा आटा और एक पैसे का गुड़ लाया। आटे को कठौती में गूँधा और तब आध घंटे तक चूल्हे के सामने खिचड़ी का मधुर आलाप सुनता रहा। उस धुँधले प्रकाश में उसका दुर्बल शरीर और उसका जीर्ण वस्त्र मनुष्य के जीवन-प्रेम का उपहास कर रहा था।
हाँडी में कई बार उबाल आये, कई बार आग बुझी। बार-बार चूल्हा फूँकते-फूँकते सूरदास की आँखों से पानी बहने लगता था। आँखें चाहे देख न सकें, पर रो सकती हैं। यहाँ तक कि वह 'षड्रस' युक्त अवलेह तैयार हुआ। उसने उसे उतारकर नीचे रखा। तब तवा चढ़ाया और हाथों से रोटियाँ बनाकर सेकने लगा। कितना ठीक अंदाजा था। रोटियाँ सब समान थीं-न छोटी, न बड़ी; न सेवड़ी, न जली हुई। तवे से उतार-उतारकर रोटियों को चूल्हे में खिलाता था, और ज़मीन पर रखता जाता था। जब रोटियाँ बन गई तो उसने द्वार पर खड़े होकर ज़ोर से पुकारा-"मिट्ठू, मिट्ठू, आओ बेटा, खाना तैयार है।” किंतु जब मिट्ठू न आया, तो उसने फिर द्वार पर टट्टी लगाई, और नायकराम के बरामदे में जाकर 'मिट्ठू-मिट्ठू' पुकारने लगा। मिट्ठू वहीं पड़ा सो रहा था, आवाज़ सुनकर चौंका। बारह-तेरह वर्ग का सुंदर हँसमुख बालक था। भरा हुआ शरीर, सुडौल हाथ-पाँव। यह सूरदास के भाई का लड़का था। माँ-बाप दोनों प्लेग में मर चुके थे। तीन साल से उसके पालन-पोषण का भार सूरदास ही पर था। वह इस बालक को प्राणों से भी प्यारा समझता था। आप चाहे फाके करे, पर मिट्ठू को तीन बार अवश्य खिलाता था। आप मटर चबाकर रह जाता था, पर उसे शकर और रोटी, कभी घी और नमक के साथ रोटियाँ, खिलाता था। अगर कोई भिक्षा में मिठाई या गुड़ दे देता, तो उसे बड़े यत्न से अंगोछे के कोने में बाँध लेता, और मिट्ठू को ही देता। सबसे कहता, यह कमाई बुढ़ापे के लिए कर रहा हूँ। अभी तो हाथ-पैर चलते हैं, माँग- खाता हूँ; जब उठ-बैठ न सकूँगा, तो लोटा-भर पानी कौन देगा। मिट्ठू को सोते पाकर गोद में उठा लिया, और झोपड़ी के द्वार पर उतारा। तब द्वार खोला, लड़के का मुँह धुलवाया, और उसके सामने गुड़ और रोटियाँ रख दी। मिट्ठू ने रोटियाँ देखी, तो ठुनककर बोला-"मैं रोटी और गुड़ न खाऊँगा।" यह कहकर उठ खड़ा हुआ।
सूरदास—"बेटा, बहुत अच्छा गुड़ है, खाओ तो। देखो, कैसी नरम-नरम रोटियाँ हैं। गेहूँ की हैं।"
मिट्ठू—"मैं न खाऊँगा।"
सूरदास—"तो क्या खाओगे बेटा? इतनी रात गये और क्या मिटेगा?"
मिट्ठू—"मैं तो दूध-रोटी खाऊँगा।"
सूरदास—"बेटा, इस जून खा लो। सबेरे मैं दूध ला दूँगा।"
मिट्ठू रोगे लगा। सूरदास उसे बहलाकर हार गया, तो अपने भाग्य को रोता हुआ