खेत की मूली! क्या तुम्हारे कहने से अपनी इज्जत गँवा दूँ, बाप-दादों के मुँह में कालिख लगवा दूँ? बड़े आये हो वहाँ से ज्ञानी बनके। तुम भीख माँगते हो, तुम्हें अपनी इज्जत की फिकिर न हो, यहाँ तो आज तक पीठ में धूल नहीं लगी।"
सूरदास ने इसका कुछ जवाब न दिया। चुपके से उठा और मंदिर के चबूतरे पर जाकर लेट गया। मिठुआ प्रसाद के इंतजार में वहीं बैठा हुआ था। उसे पैसे निकालकर दिये कि सत्तू-गुड़ लाकर खा ले। मिठुआ खुश होकर बनिये की दुकान की ओर दौड़ा। बच्चों को सत्तू और चबेना रोटियों से अधिक प्रिय होता है।
सूरदास के चले आने के बाद कुछ देर तक लोग सन्नाटे में बैठे रहे। उसके विरोध ने उन्हें संशय में डाल दिया था। उसकी स्पष्टवादिता से सब लोग डरते थे। यह भी मालूम था कि वह जो कुछ कहता है, उसे पूरा कर दिग्वता है। इसलिए आवश्यक था कि पहले सूरदास ही से निबट लिया जाय। उसे कायल करना मुश्किल था। धमकी से भी कोई काम न निकल सकता था। नालकराम ने उस पर लगे हुए कलंक का समर्थन करके उसे परास्त करने का निश्चय किया। बोला—"मालूम होता है, उन लोगों ने अंधे को फोड़ लिया।"
भैरो—"मुझे भी यही संदेह होता है।"
जगधर—सूरदास फूटनेवाला आदमी नहीं है।"
बजरंगी—कभी नहीं।"
ठाकुरदीन-“ऐसा स्वभाव तो नहीं है, पर कौन जाने। किसी की नहीं चलाई जाती। मेरे ही घर चोरी हुई, तो क्या बाहर के चोर थे? पड़ोसियों ही की करतूत थी। पूरे एक हजार का माल उठ गया। और वहीं लोग, जिन्होंने माल उड़ाया, अब तक मेरे मित्र बने हुए हैं। आदमी का मन छिन-भर में क्या से क्या हो जाता है।"
नायकराम-"शायद जमीन का मामला करने पर राजी हो गया हो; पर साहब ने इधर अंख उठाकर भी देखा, तो बँगले में आग लगा दूँगा। (मुस्किराकर) भैरो मेरी मदद करेंगे ही।”
भैरो-“पण्डाजी, तुम लोग मेरे ऊपर सुभा करते हो, पर मैं जवानी की कसम खाता हूँ, जो उनके झोपड़े के पास भी गया होऊँ। जगघर मेरे यहाँ आते-जाते हैं, इन्हीं से ईमान से पूछिए।"
नायकराम-"जो आदमी किसी की बहू-बेटी पर बुरी निगाह करे, उसके घर में आग लगाना बुरा नहीं। मुझे पहले तो विश्वास नहीं आता था; पर आज उसके मिजाज का रंग बदला हुआ है।"
बजरंगी-“पण्डाजी, सूरे को तुम आज ३० बरसों से देख रहे हो। ऐसी बात न कहो।"
जगधर-"सूरे में और चाहे जितनी बुराइयाँ हों, यह बुराई नहीं है।"
भैरो-“मुझे भी ऐसा जान पड़ता है कि हमने हक-नाहके उस पर कलंक लगाया।