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रंगभूमि

बजरंगी इसका जवाब देना ही चाहता था कि नायकराम ने आगे बढ़कर कहा-“उस पर आप क्यों बिगड़ते हैं, फौजदारी मैंने की है, जो कहना हो, मुझसे कहिए।”

प्रभु सेवक ने विस्मित होकर पूछा-"तुम्हारा क्या नाम है?"

नायकराम को कुछ तो राजा महेंद्रकुमार के आश्वासन, कुछ विजया की तरंग और कुछ अपनी शक्ति के ज्ञान ने उच्छंखल बना दिया था। लाठी सीधी करता हुआ बोला-"लट्ठमार पाँड़े!"

इस जवाब में हेकड़ी की ज ह हास्य का आधिक्य था। प्रभु सेवक का बनावटी क्रोध हवा हो गया। हँसकर बोले-"तब तो यहाँ ठहरने में कुशल नहीं है, कहीं बिल खोदना चाहिए।"

नायकराम अक्खड़ आदमी था। प्रभु सेवक के मनोभाव न समझ सका। भ्रम हुआ-"यह मेरी हँसी उड़ा रहे हैं, मानों कह रहे हैं कि तुम्हारी बकवास से क्या होता है, हम जमीन लेंगे और जरूर लेंगे।" तिनककर बोला-"आप हँसते क्या है, क्या समझ रखा है कि अंधे की जमीन सहज ही में मिल जायगी? इस धोखे में न रहिएगा।"

प्रभु सेवक को अब क्रोध आया। पहले उन्होंने समझा था, नायकराम दिल्लगी कर रहा है। अब मालूम हुआ कि वह सचमुच लड़ने पर तैयार है। बोले-"इस धोने में नहीं हूँ, कठिनाइयों को खूब जानता हूँ; अब तक भरोसा था कि समझौते से सारी बातें तय हो जायँगी, इसीलिए आया था। लेकिन तुम्हारी इच्छा कुछ और हो, तो वही सही। अब तक मैं तुम्हें निर्बल समझता था, और निर्बलों पर अपनी शक्ति का प्रोयग न करना चाहता था। पर आज जाना कि तुम हेकड़ हो, तुम्हें अपने बल का घमंड है। इसलिए अब हम भी तुम्हें अपने हाथ दिखायें, तो कोई अन्याय नहीं है।"

इन शब्दों में नेकनीयती झलक रही थी। ठाकुरदीन ने कहा---"हजूर, पण्डाजी की बातों का खियाल न करें। इनकी आदत ही ऐनी है, जो कुछ मुँह में आया, बक डालते हैं। हम लोग आपके ताबेदार हैं।"

नायकराम-"आप दूसरों के बल पर कुदते होंगे, यहाँ अपने हाथों के बल का भरोमा करते हैं। आप लोगों के दिल में जो अरमान हो, निकाल डालिए। फिर न कहना कि धोखे में वार किया। (धीरे से) एक ही हाथ में सारी किरस्तानी निकल जायगी।"

प्रभु सेवक-"क्या कहा, जरा जोर मे क्यों नहीं कहते?"

नायकराम-(कुछ डरकर) "कह तो रहा हूँ, जो अरमान हो, निकाल डालिए।"

प्रभु सेवक-"नहीं, तुमने कुछ और कहा है।"

नायकराम---जो कुछ कहा है, वही फिर कह रहा हूँ। किसी का डर नहीं है।"

प्रभु सेवक-"तुमने गाली दी है।"

यह कहते हुए प्रभु सेवक फिटन से नीचे उतर पड़े, नेत्रों से ज्याला-सी निकलने लगी, नथने फड़कने लगे, सारा शरीर थरथराने लगा, एड़ियाँ ऐसी उछल रही थीं, मानों किसी उबलती हुई हाँड़ी का ढकना है। आकृति विकृत हो गई थी। उनके हाथ में केवल