सूरदास—"तो फिर बनायेंगे।"
मिठुआ--"और फिर लगा दे?
सूरदास—"तो हम भी फिर बनायेंगे।"
मिठुआ--"और जो कोई हजार बार लगा दे?"
सूरदास—"तो हम हजार बार बनायेंगे।"
बालकों को संख्याओं से विशेष रुचि होती है। मिठुआ ने फिर पूछा--"और जो कोई सौ लाख बार लगा दे?"
सूरदास ने उसी बालोचित सरलता से उत्तर दिया-"तो हम भी सौ लाख बार बनायेंगे।"
जब वहाँ राख की चुटकी भी न रही, तो सब लड़के किसी दूसरे खेल की तलाश में दौड़े। दिन अच्छी तरह निकल आया था। सूरदास ने भी लकड़ो सँभाली और सड़क की तरफ चला। उधर जगधर यहाँ से नायकराम के पास गया; और यहाँ भी यह वृत्तांत सुनाया। पण्डा ने कहा-"मैं भैरो के बाप से रुपये वसूल करूँगा, जाता कहाँ है, उसकी हड्डियों से रुपये निकालकर दम लूँगा, अंधा अपने मुँह से चाहे कुछ कहे या न कहे।"
जगधर वहाँ से बजरंगी, दयागिर, ठाकुरदीन आदि मुहल्ले के सब छोटे-बड़े आदमियों से मिला और यह कथा सुनाई। आवश्यकतानुसार यथार्थ घटना में नमक-मिर्च भी लगाता जाता था। सारा मुहल्ला भैरो का दुश्मन हो गया।
सूरदास तो सड़क के किनारे राहगीरों की जय मना रहा था, यहाँ मुहल्लेवालों ने उसकी झोपड़ी बसानी शुरू की। किसी ने फूस दिया, किसी ने बाँस दिये, किसी ने धरन दी, कई आदमी झोपड़ी बनाने में लग गये। जगधर ही इस संगठन का प्रधान मंत्री था। अपने जीवन में शायद ही उसने इतना सदुत्साह दिखाया हो। ईर्ष्या में तम-ही-तम नहीं होता, कुछ सत् भी होता है। संध्या तक झोपड़ी तैयार हो गई, पहले से कहीं ज्यादा बड़ी और पायदार। जमुनी ने मिट्टी के दो घड़े और दो-तीन हाँड़ियाँ लाकर रख की जरा भी खबर न हो, जब वह शाम को आये, तो घर देखकर चकित हो जाय, और पूछने लगे, किसने बनाया, तब सब लोग कहें, आप-ही-आप तैयार हो गया।