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रंगभूमि


हाथ न लगी। तब तो उसने नैराश्य की उतावली और अधीरता के साथ सारी राख छान डाली। एक-एक मुट्ठी राख हाथ में लेकर देखी। लोटा मिला, तत्रा मिला, किंतु पोटली न मिली। उसका वह पैर, जो अब तक सीढ़ी पर था, फिसल गया और अब वह अथाह गहराई में जा पड़ा। उसके मुख से सहसा एक चीख निकल आई। वह वहीं राख पर बैठ गया और बिलख-बिलखकर रोने लगा। यह फूस की राख न थी, उसकी अभिलापाओं की राख थी। अपनी बेबसी का इतना दुःख उसे कभी न हुआ था।

तड़का हो गया, सूरदास अब राख के ढेर को बटोरकर एक जगह एकत्र कर रहा था। आशा से ज्यादा दीर्घजीवी और कोई वस्तु नहीं होती।

उसी समय जगधर आकर बोला-"सूरे, सच कहना, तुम्हें मुझ पर तो सुभा नहीं है?"

सूरे को सुभा तो था; पर उसने इसे छिपाकर कहा-"तुम्हारे ऊपर क्यों सुभा करूँगा। तुमसे मेरी कौन-सी अदावत थी।"

जगधर-"मुहल्लेबाले तुम्हें भड़कायेंगे, पर मैं भगवान से कहता हूँ, मैं इस नारे में कुछ नहीं जानता।"

सूरदास-“अब तो जो कुछ होना था, हो चुका। कौन जाने, किसी ने लगा दी, या किसी की चिलम से उड़कर लग गई। यह भी तो हो सकता है कि चूल्हे में आग रह गई हो। बिना जाने-बूझे किस पर सुभा करूँ?"

जगधर-"इसी से तुम्हें चिता दिया कि कहीं सुभे में मैं भी न मारा जाऊँ।”

सूरदास--"तुम्हारी तरफ से मेरा दिल साफ है।"

जगधर को भैरो की बातों से अब यह विश्वास हो गया कि उसी की शरारत है। उसने सूरदास को रुटाने की बात कही थी। उस धमको को इस तरह पूरा किया। वह वहाँ से सीधे भैरो के पास गया। वह चुपचाप बैठा नारियल पी रहा था, पर मुख से चिता और घबराट झलक रही थी। जगधर को देखते ही बोला-"कुछ सुना; लोग क्या बातचीत कर रहे हैं?

जगधर---"सब लोग तुम्हारे ऊपर सुभा करते हैं। नानकराम की धमकी तो तुमने अपने कानों से सुनी।"

भैरो—"यहाँ ऐसो धमकियों की परवा नहीं है। सबूत क्या है कि मैंने लगाई?"

जगधर---"सच कहो, तुम्हों ने लगाई?”

भैरो—"हाँ, चुपके से एक दियासलाई लगा दी।"

जगधर—"मैं कुछ-कुछ पहले ही समझ गया था; पर यह तुमने बुरा किया। झोपड़ी जलाने से क्या मिला? दो-चार दिन में फिर दूसरी झोपड़ी तैयार हो जायगी।"

भैरो—"कुछ हो, दिल की आग तो ठण्डी हो गई। यह देखो!"

यह कहकर उसने एक थैली दिखाई, जिसका रंग धुएँ से काला हो गया था। जगधर ने उत्सुक होकर पूछा--"इसमें क्या है? अरे! इसमें तो रुपये भरे हुए हैं।"