नाम करे, चाहे जो इलजाम लगाये, मेरा जो धरम था वह मैंने किया। बदनामी के डर से जो आदमी धरम से मुँह फेर ले, वह आदमी नहीं है।"
बजरंगी—“तुम्हें हट जाना था, उसकी औरत थी, मारता चाहे पीटता, तुमसे मतलब।"
सूरदास—"भैया, आँखों देखकर रहा नहीं जाता, यह तो संसार का व्यवहार है; पर इतनी सी बात पर कोई इतना बड़ा कलंक तो नहीं लगा देता। मैं तुमसे सच कहता हूँ, आज मुझे जितना दुःख हो रहा है, उतना दादा के मरने पर भी न हुआ था। मैं अपाहिज, दूसरों के टुकड़े खानेवाला और मुझ पर यह कलंक!” (रोने लगा)
नायकराम—"तो रोते क्या हो भले आदमी, अंधे हो, तो क्या मर्द नहीं हो? मुझे तो कोई यह कलंक लगाता, तो और खुश होता। ये हजारों आदमी, जो तड़के गंगा-स्नान करने जाते हैं, वहाँ नजरबाजी के सिवा और क्या करते हैं। मंदिरों में इसके सिवा और क्या होता है! मेले-ठेलों में भी यही बहार रहती है। यही तो मरदों के काम हैं। अब सरकार के राज में लाठी-तलवार का तो कहीं नाम नहीं रहा, सारी मनुसई इसी नजरबाजी में रह गई है। इसकी क्या चिंता! चलो, भगवान् का भजन हो, यह सब दुख दूर हो जायगा।
बजरंगी को चिंता लगी हुई थी—"आज की मार-पीट का न जाने क्या फल हो। कल पुलिस द्वार पर आ जायगी। गुस्सा हराम होता है।” नायकराम ने आश्वासन दिया-"भले आदमी, पुलीस से क्या उरते हो? कहो, थानेदार को बुलाकर नचाऊँ, कहो इसपेट्टर को बुलाकर चपतियाऊँ। निश्चित बैठे रहो, कुछ न होने पायेगा। तुम्हारा बाल भी बाँका हो जाय, तो मेरा जिम्मा।"
तीनों आदमी यहाँ से चले। दयागिर पहले ही से इनकी राह देख रहे थे। कई गाड़ीवान और बनिये भी आ बैठे थे। जरा देर में भजन की 'ताने उठने लगीं। सूरदास अपनी चिन्ताओं को भूल गया, मस्त होकर गाने लगा। कभी भक्ति से विह्वल होकर नाचता, उछलने-कूदने लगता, कभी रोता, कभी हँसता। सभा विसर्जित हुई, तो सभी प्राणी प्रसन्न थे, सबके हृदय निर्मल हो गये थे, मलीनता मिट गई थी, मानों किसी रमणीक स्थान की सैर करके आये हों। सूरदास तो मन्दिर के चबूतरे ही पर लेटा ओर लोग अपने-अपने घर गये। किन्तु थोड़ी ही देर बाद सूरदास को फिर उन्हीं चिन्ताओं ने आ घेरा-"मैं क्या जानता था कि भैरो के मन में मेरी ओर से इतना मैल है, नहीं तो सुभागी को अपने झोंपड़े में आने ही क्यों देता। जो सुनेगा, वही मुझपर थूकेगा। लोगों को ऐसी बातों पर कितनी जल्द विश्वास आ जाता है। मुहल्ले में कोई अपने दरवाजे पर खड़ा न होने देगा। ऊँह! भगवान तो सबके मन की बात जानते हैं। आपमी का धरम है कि किसी को दुःख में देखे, तो उसे तसल्ली दे। अगर अपना धरम पालने में भी कलंक लगता है, तो लगे, बला से। इसके लिए कहाँ तक रोऊँ। कभी-न-कभी तो लोगों को मेरे मन का हाल मालूम ही हो जायगा।"