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रंगभूमि

नायकराम-"बहुत अच्छी कही बजरंगी, बहुत पक्की कही, वाह-वाह! मार से भूत भागता है, तो औरत भी भाग जायगी! अब तो कट गई तुम्हारी बात?"

भैरो–“बात क्या कट जायगी, दिल्लगी है? चूने को जितना ही कूटो, उतना ही चिमटता है।"

जगधर-“ये सब कहने की बातें हैं। ओरत अपने मन से बस में आती है, ओर किसी तरह नहीं।

नायकराम-"क्यों बजरंगी, नहीं है कोई जवाब?"

ठाकुरदीन—“पण्डाजी, तुम दोनों को लड़ाकर तभी दम लोगे; बिचारे अपाहिज आदमी के पीछे पड़े हो।"

नायकराम-"तुम सूरदास को क्या समझते हो, यह देखने ही में इतने दुबले हैं। अभी हाथ मिलाओ, तो मालूम हो भैरो, अगर इन्हें पछाड़ दो, तो पाँच रुपये इनाम दूँ।"

भैरो---"निकल जाओगे।"

नायकराम-"निकलनेवाले को कुछ कहता हूँ। यह देखो, ठाकुरदीन के हाथ में रखे देता हूँ।"

जगधर-"क्या ताकते हो भैरो, ले पड़ो।"

सूरदास-"मैं नहीं लड़ता।"

नायकराम-'सूरदास, देखो, नाम-हँसाई मत कराओ। मर्द होकर लड़ने से डरते हो? हार ही जाओगे या और कुछ!"

सूरदास-'लेकिन भाई, मैं पेंच-पाच नहीं जानता। पीछे से यह न कहना, हाथ क्यों पकड़ा। मैं जैसे चाहूँगा, वैसे लड़ूँगा।"

जगधर-"हाँ-हाँ, तुम जैसे चाहना, वैसे लड़ना।"

सूरदास-"अच्छा तो आओ, कौन आता है!"

नायकराम—"अंधे आदमी का जीवट देखना। चलो भैरो, आओ मैदान में।"

भैरो-अंधे से क्या लड़ूँगा!"

नायकराम—"बस, इसी पर इतना अकड़ते थे!”

जगधर-"निकल आओ भैरो, एक झट्टे में तो मार लोगे।"

भैरो---"तुम्हीं क्यों नहीं लड़ जाले, तुम्ही इनाम ले लेना।" जगबर को रुपयों की नित्य चिंता रहती थी। परिवार बड़ा होने के कारण किसी तरह चूल न बैठती थी, घर में एक-न-एक चीज घटी ही रहती थी। धनोपार्जन के किसी उपाय को हाथ से न छोड़ना चाहता था। बोला-"क्यों सूरे, हमसे लड़ोगे?"

सूरदास--"तुम्ही आ जाओ, कोई सही।”

जगधर—"क्यो, पण्डाजी, इनाम दोगे न?”

नायकराम—"इनाम तो भैरो के लिए था, लेकिन कोई हरज नहीं! हाँ, सर्त यह है कि एक ही झपट्टे में गिरा दो।"