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रंगभूमि


क्यों? इसलिए कि वह सफल-मनोरथ हुआ। लेनिन कई साल पहले प्राण-भय से अमेरिका भागा था, आज वह रूस का प्रधान है। इसीलिए कि उसका विद्रोह सफल हुआ। मैंने राजा साहब को स्वपक्षी बना लिया, फिर रंग भरने का दोष कहाँ रहा?"

इतने में फिटन बँगले पर आ पहुँची। ईश्वर सेवक ने आते-ही-आते पूछा- "कहो, क्या कर आये?"

जॉन सेवक ने गर्व से कहा-“राजा को अपना मुरीद बना आया। थोड़ा सा रंग तो जरूर भरना पड़ा, पर उसका असर बहुत अच्छा हुआ।"

ईश्वर सेवक-"जुदा, मुझ पर दया-दृष्टि कर। बेटा, रंग मिलाये बगैर भी दुनिया का कोई काम चलता है? सफलता का यही मूल-मंत्र है, और व्यवसाय की सफलता के लिए तो यह सर्वथा अनिवार्य है। आपके पास अच्छी-से-अच्छी वस्तु है; जब तक आप स्तुति नहीं करते, कोई ग्राहक खड़ा ही नहीं होता। अपनी अच्छी वस्तु को अमूल्य, दुर्लभ, अनुपम कहना बुरा नहीं। अपनी ओपधि को आप सुधा-तुल्य, रामवाण, अक्सीर, ऋषि-प्रदत्त, संजीवनी, जो चाहें, कह सकते हैं, इसमें कोई बुराई नहीं। किमी उपदेशक से पूछो, किसी वकील से पूछो, किसी लेखक से पूछो, सभी एक स्वर से कहेंगे कि रंग और सफलता समानार्थक हैं। यह भ्रम है कि चित्रकार ही को रंगों की जरूरत होती है। अब तो तुम्हें निश्चय हो गया कि वह जमीन मिल जायगी?"

जॉन सेवक-"जी हाँ, अब कोई संदेह नहीं।"

यह कहकर उन्होंने प्रभु सेवक को पुकारा और तिरस्कार करके बोले-“बैठे-बैट क्या कर रहे हो? जरा पाँड़ेपुर क्यों नहीं चले जाते? अगर तुम्हारा यही हाल रहा, तो मैं कहाँ तक तुम्हारी मदद करता फिरूँगा।"

प्रभु सेवक—"मुझे जाने में कोई आपनि नहीं; पर इस समय मुझे सोफी के पास जाना है।"

जॉन सेवक—“पाँडेपुर से लौटते हुए सोफी के पास बहुत आसानी से जा सकते हो।"

प्रभु सेवक—"मैं सोफी से मिलना ज्यादा जरूरी समझता हूँ।"

जॉन सेवक--"तुम्हारे रोज-रोज मिलने से क्या फायदा, जब तुम आज तक उसे घर लाने में सफल नहीं हो सके?"

प्रभु सेवक के मुँह से ये शब्द निकलते-निकलते रह गये-"मामा ने जो आग लगा दी है, वह मेरे बुझाये नहीं बुझ सकती।" तुरंत अपने कमरे में आये, कपड़े पहन और उसी वक्त ताहिरअली के साथ पाँडेपुर चलने को तैयार हो गये। ग्यारह बज चुके थे, जमीन से आग की लपक निकल रही थी, दोपहर का भोजन तैयार था, मेज लगा दी गई थी; किंतु प्रभु सेवक माता और पिता के बहुत आग्रह करने पर भी भोजन पर न बैठे। ताहिरअली खुदा से दुआ कर रहे थे कि किसी तरह दोपहरी यहीं कट जाय, पंखे के नीचे टट्टियों से छनकर आनेवाली शीतल वायु ने उनकी पीड़ा को बहुत शांत कर दिया था; किंतु प्रभु सेवक के हठ ने उन्हें यह आनंद न उठाने दिया।