ताहिर-"जान तो सलामत रहेगी, पर गुजर क्योंकर होगा, कौन इतना दिये देता, है? देखती हो कि अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे आदमी मारे-मारे फिरते हैं।"
कुल्सूम-"न इतना मिलेगा, न सही; इसका आधा तो मिलेगा! दोनों वक्त न खायेंगे, एक ही वक्त सही; जान तो आफत में न रहेगी।"
ताहिर-"तुम एक वक्त खाकर खुश रहोगी, घर में और लोग भी तो हैं, उनके दुखड़े रोज कौन सुनेगा? मुझे अपनी जान से दुश्मनी थोड़े ही है; पर मजबूर हूँ। स्नुदा को जो मंजूर होगा, वह पेश आयेगा।”
कुल्सूम-"घर के लोगों के पीछे क्या जान दे दोगे?"
ताहिर-"कैसी बातें करती हो, आखिर वे लोग कोई गैर तो नहीं हैं। अपने ही भाई हैं, अपनी माएँ हैं। उनकी परवरिश मेरे सिवा और कौन करेगा?"
कुल्सूम-"तुम समझते होगे, वे तुम्हारे मुहताज हैं, मगर उन्हें तुम्हारी रत्ती-भर भी परवा नहीं। सोचती हैं, जब तक मुपत का मिले, अपने खजाने में क्यों हाथ लगायें। मेरे बच्चे पैसे-पैसे को तरसते हैं और वहाँ मिठाइयों की हाँड़ियाँ आती हैं, उनके लड़के मजे से खाते हैं। देखती हूँ और आँखें बन्द कर लेती हूँ।”
ताहिर-"मेरा जो फर्ज है, उसे पूरा करता हूँ। अगर उनके पास रुपये हैं, तो इसका मुझे क्यों अफसोस हो, वे शौक से खायें, आराम से रहें। तुम्हारी बातों से हसद की बू आती है। खुदा के लिए मुझसे ऐसी बातें न किया करो।"
कुल्सूम-"पछताओगे; जब समझाती हूँ, मुझ ही पर नाराज होते हो; लेकिन देख लेना, कोई बात न पूछेगा।"
ताहिर-“यह सब तुम्हारी नियत का कसूर है।"
कुल्सूम-"हाँ, औरत हूँ, मुझे अक्ल कहाँ! पड़े तो हो, किसी ने झाँका तक नहीं कलक होती, तो यों चैन से न बैठी रहती।"
ताहिरअली ने करवट ली, तो कन्धे में असह्य वेदना हुई, आह-आह! करके चिल्ला उठे। माथे पर पसीना आ गया। कुल्लूम घबराकर बोली-"किसी को भेजकर डॉक्टर को क्यों नहीं बुला लेते? कहीं हड्डी पर जरब न आ गया हो।"
ताहिर—"हाँ, मुझे भी ऐसा ही खोफ होता है, मगर डॉक्टर को बुलाऊँ, तो उसकी फीस के रुपये कहाँ से आगे?"
कुल्लूम—"तनख्वाह तो अभी मिली थी, क्या इतनी जल्द खर्च हो गई?"
ताहिर—"खर्च तो नहीं हो गई, लेकिन फीस की गुंजाइश नहीं है। अबकी माहिर की तीन महीने की फीस देनी होगी। १२) तो फीस ही के निकल जायँगे, सिर्फ १८) बचेंगे। अभी तो पूरा महीना पड़ा हुआ है। क्या फाके करेंगे?”
कुल्सूम—"जब देखो, माहिर की फीस का तकाजा सिर पर सवार रहता है। अभी दस दिन हुए, फीस दी नहीं गई?”
ताहिर—“दस दिन नहीं हुए, एक महीना हो गया।"