प्रभु सेवक-(सूरदास से) "तुम्हारे विचार में हम लोगों को वैरागी हो जाना चाहिए। क्यों?"
सूरदास-"हाँ, जब तक हम वैरागी न होंगे, दुःख से नहीं बच सकते।"
जॉन सेवक-"शरीर में भभूत मलकर भीख माँगना स्वयं सबसे बड़ा दुःख है; यह हमें दुःखों से क्योंकर मुक्त कर सकता है?"
सूरदास-"साहब, वैरागी होने के लिए भभूत लगाने और भीख माँगने की ज़रूरत नहीं। हमारे महात्माओं ने तो भभूत लगाने और जटा बढ़ाने को पाखण्ड बताया है । बैराग तो मन से होता है संसार में रहे, पर संसार का होकर न रहे। इसी को बैराग कहते हैं।"
मिसेज सेवक-"हिंदुओं ने ये बातें यूनान के Stoics से सीखी हैं; किंतु यह नहीं समझते कि इनका व्यवहार में लाना कितना कठिन है। यह हो ही नहीं सकता कि आदमी पर दुःख-सुख का असर न पड़े। इसी अंधे को अगर इस वक्त पैसे न मिले, तो दिल में हजारों गालियाँ देगा।"
जॉन सेवक-"हाँ, इसे कुछ मत दो, देखो, क्या कहता है। अगर ज़रा भी भुनभुनाया, तो हंटर से बातें करूँगा। सारा बैराग भूल जायगा। माँगता है भीख, धेले-धेले के लिए मीलों कुत्तों की तरह दौड़ता है, उस पर दावा यह है कि मैं वैरागी हूँ। (कोचवान से) गाड़ी फेरो, क्लब होते हुए बँगले चलो।”
सोफिया-"मामा, कुछ तो जरूर दे दो, बेचारा आशा लगाकर इतनी दूर दौड़ा आया था ।”
प्रभु सेवक—“ओहो, मुझे तो पैसे भुनाने की याद ही न रही।"
जॉन सेवक—"हरगिज नहीं, कुछ मत दो, मैं इसे बैराग का सबक देना चाहता हूँ।"
गाड़ी चली। सूरदास निराशा की मूर्ति बना हुआ अंधी आँखों से गाड़ी की तरफ ताकता रहा, मानों उसे अब भी विश्वास न होता था कि कोई इतना निर्दयी हो सकता है। वह उपचेतना की दशा में कई कदम गाड़ी के पीछे-पीछे चला। सहसा सोफिया ने कहा--"सूरदास, खेद है, मेरे पास इस समय पैसे नहीं हैं। फिर कभी आऊँगी, तो तुम्हे इतना निराश न होना पड़ेगा।"
अन्धे सूक्ष्मदर्शी होते हैं। सूरदास स्थिति को भली भाँति समझ गया। हृदय को क्लेश तो हुआ, पर बेपरवाही से बोला-"मिस साहब, इसकी क्या चिंता? भगवान् तुम्हारा कल्यान करें। तुम्हारी दया चाहिए, मेरे लिए यही बहुत है।"
सोफिया ने माँ से कहा—"मामा, देखा आपने, इसका मन ज़रा भी मैला नहीं हुआ।"
प्रभु सेवक—"हाँ, दुखी तो नहीं मालूम होता।"
जॉन सेवक—"उसके दिल से पूछो।"
मिसेज सेवक—“गालियाँ दे रहा होगा।"